6/22/16

दारिद्रयदहन शिव स्तोत्र | द्रारिद्रता का दहन करने वाला स्त्रोत

द्रारिदय दहन स्त्रोत का अर्थ है-द्रारिद्रता का दहन करने वाला स्त्रोत। जिस स्तुति को सुनकर शिव आनंदित हो उठें, ऐसे प्रभाव वाला द्रारिद्रय दहन शिव स्त्रोत है। शिव पूजन के बाद इस स्त्रोत का पाठ किया जाना शिव को प्रसन्न करता है। इस स्त्रोत के पाठ से जीवन की दरिद्रता से छुटकारा मिलता है। जैसे कि अग्नि में जलकर कोई चीज जलकर राख हो जाती है। शिव की प्रसन्नता जीवन में सौभाग्य लाती है।

 विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय 
कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय।
कर्पूरकांतिधवलाय जटाधराय
 दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय।।1।। 
गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय  
कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय। 
 गङ्गाधराय गजराजविमर्दनाय ।।2।। 
भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय  
उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय।  
ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय ।।3।। 
चर्माम्बराय शवभस्मविलेपनाय
 भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय। 
 मञ्जीरपादयुगलाय जटाधराय ।।4।। 
पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय
हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय।  
आनंतभूमिवरदाय तमोमयाय ।।5।। 
भानुप्रियाय भवसागरतारणाय  
कालान्तकाय कमलासनपूजिताय। 
 नेत्रत्रयाय शुभलक्षणलक्षिताय ।।6।। 
​रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय  
नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय। 
 पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय ।।7।। 
मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय 
 गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय। 
 मातङग्चर्मवसनाय महेश्वराय ।।8।।
 वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणम्।
  सर्वसम्पत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम्। 
 त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात् ।।9।। 

शनिवार व्रत कथा




शनिवार का व्रत करने से शनि और राहु की शांति होती है. शनि की शांति हेतु कम से कम 19 व्रत एवं राहु की शांति के लिए 18 व्रत किए जाते हैं. यह व्रत मनस्ताप, रोग, शोक, भय, बाधा आदि से मुक्ति एवं शनि जन्य पीड़ा के निवारण के लिए विशेष रूप से फलदायक होता है.  शनिवार के दिन प्रातः स्नानादि करने के बाद काला तिल और लौंग मिश्रित जल पश्चिम दिशा की ओर मुख करके पीपल वृक्ष पर चढाएं. तत्पश्चात शिवोपासना या हनुमत आराधना और साथ ही शनि की लौह प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए. फिर शनिवार व्रत कथा का पाठ करना चाहिए. उड़द के बने पदार्थ बूढ़े ब्राह्मण को देना चाहिए और स्वयं सूर्यास्त के पश्चात भोजन ग्रहण करना चाहिए. भोजन के पूर्व शनि की शांति हेतु ‘शं शनैश्चराय नमः’ मंत्र का और राहु की शांति ‘हेतु  ‘रां राहवे नमः’ मंत्र का तीन-तीन माला जप करना चाहिए. शनि के व्रत की पूर्णाहुति हेतु शमीकाष्ठ से हवन करें. राहु के व्रत की पूर्णाहुति हेतु हवन में दूर्वा का उपयोग करना चाहिए. विधि: शनि देव की पूजा शनिवार के दिन होती है. इनकी पूजा काला तिल, काला वस्त्र, तेल, उड़द के द्वारा की जाती है. यह वस्तुएं शनि देव को बहुत प्रिय है. शनि की दशा को दूर करने के लिए यह व्रत किया जाता है. इनके प्रकोप में से बचने के लिए शनि सत्रोत का पाठ विशेष लाभदायक सिद्ध होता है. शनिवार व्रतकथा: एक बार स्वर्गलोक में इस प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया कि 'सबसे बड़ा कौन?' है. विवाद इतना बढ़ गया कि परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई. निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुँचे और बोले- 'हे देवराज! आप यह निर्णय कीजिए कि हममें से सबसे बड़ा कौन है?' देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए. इंद्र बोले- 'मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ. हम सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं. इसका प्रश्न का समाधान वही बताएंगें. देवराज इंद्र सहित सभी देवता उज्जयिनी नगरी पहुँचे. राजा विक्रमादित्य  ने महल में सभी देवताओं का स्वागत किया और आने का कारण पूंछा. तब देवताओं ने राजा विक्रमादित्य से अपना प्रश्न पूछा. प्रसुन सुनकर  राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे. किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुँच सकती थी. अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत (चाँदी), कांसा, ताम्र (तांबा), सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए. धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा. देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- 'आपका निर्णय तो स्वयं हो गया. जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वही सबसे बड़ा है.' राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा- 'राजा विक्रमादित्य! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है. तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो. मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा.' शनि ने कहा- 'सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) तक रहता हूँ. बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है. राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा. राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा.' इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परंतु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहाँ से विदा हुए. राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे. उनके राज्य में सभी स्त्री-पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे. कुछ दिन ऐसे ही बीत गए. उधर शनि देवता अपने अपमान को भूले नहीं थे. राजा विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुँचे. राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा. घोड़े बहुत कीमती थे. अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा विक्रमादित्य ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया. घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुए तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा. तेजी से दौड़ता घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहाँ गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया. राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगे लेकिन उन्हें लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला. राजा विक्रमादित्य भूख और प्यास से तड़पने लगे. बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला. राजा ने उससे पानी माँगा. पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अँगूठी दे दी. फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से निकलकर पास के नगर में पहुँचा.  राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया. उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्जयिनी नगरी से आया हूँ. राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई. सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और खुश होकर उसे भोजन कराने के लिए अपने घर ले गया. सेठ के घर में सोने का एक हार खूँटी पर लटका हुआ था. राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया. तभी देखते ही देखते उस खूंटी ने सोने का हार निगल लिया. एक आश्चर्यजनक घटना घटी. यह देखकर राजा बहुत ही आश्चर्य चकित हुआ.  सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का संदेह राजा पर ही किया क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था. सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बाँधकर नगर के राजा के पास ले चलो. राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूँटी ने हार को निगल लिया था. इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटने का आदेश दे दिया. राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया. कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया. राजा आवाज देकर बैलों को हाँकता रहता. इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा. शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई. राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी. उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा. दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया. राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई. अतः उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया. राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गए. रानी ने मोहिनी को समझाया- 'बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है. फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?' राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया. आखिर राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा. विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे. उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- 'राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया. मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है.' राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- 'हे शनिदेव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना.' शनिदेव ने कुछ सोचकर कहा- 'राजा! मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ. जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी. प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पाँव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई. उसने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया. राजकुमारी भी राजा के हाथ-पाँव सही-सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई. तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई. सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुँचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा. राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था. सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया. भोजन करते समय वहाँ एक आश्चर्यजनक घटना घटी. सबके देखते-देखते उस खूँटी ने हार उगल दिया. सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया. राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्जयिनी पहुँचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया. अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं. प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें. राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए. शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएँ शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं. सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे. आरती: चार भुजा तहि छाजै, गदा हस्त प्यारी | जय ० रवि नंदन गज वंदन,यम अग्रज देवा | कष्ट न सो नर पाते, करते तब सेना | जय ० तेज अपार तुम्हारा, स्वामी सहा नहीं जावे | तुम से विमुख जगत में,सुख नहीं पावे | जय ० नमो नमः रविनंदन सब ग्रह सिरताजा | बंशीधर यश गावे रखियो प्रभु लाज | जय ० 

श्री सत्यनारायण की व्रत कथा

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भगवान श्री सत्यनारायण की व्रत कथा हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए चिरपरिचित कथा है. भगवान श्री सत्यनारायण की व्रत कथा का उल्लेख स्कन्द पुराण के रेवा खण्ड में किया गया है. सभी प्रकार के मनोरथ पूर्ण करने वाली यह कथा समाज के सभी वर्गों को सत्यव्रत की शिक्षा देती है. सत्य को ईश्वर मानकर, निष्ठा के साथ समाज के किसी भी वर्ग का व्यक्ति यदि इस व्रत व कथा का श्रवण करता है, तो उसे इससे निश्चित ही मनवांछित फल की प्राप्ति होती है. प्रथम अध्याय व्यास जी ने कहा- एक समय की बात है. नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादिक अठ्ठासी हजार ऋषियों ने पुराणवेत्ता श्री सूतजी से पूछा- हे सूतजी! इस कलियुग में वेद-विद्यारहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनि श्रेष्ठ! कोई ऐसा व्रत अथवा तप कहिए जिसके करने से थोड़े ही समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनवांछित फल भी मिले. हमारी प्रबल इच्छा है कि हम ऐसी कथा सुनें. श्री सूतजी ने कहा- हे वैष्णवों में पूज्य! आप सबने प्राणियों के हित की बात पूछी है. अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आपसे कहूंगा जिसे नारदजी के पूछने पर लक्ष्मीनारायण भगवान ने उन्हें बताया था. कथा इस प्रकार है. आप सब सुनें. एक समय देवर्षि नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से सभी लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुँचे. यहां अनेक योनियों में जन्मे प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मों के अनुसार कई दुखों से पीड़ित देखकर उन्होंने विचार किया कि किस यत्न के करने से प्राणियों के दुःखों का नाश होगा. ऐसा मन में विचार कर श्री नारद विष्णुलोक गए. वहां श्वेतवर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को, जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे तथा वरमाला पहने हुए थे, देखकर स्तुति करने लगे. नारदजी ने कहा- 'हे भगवन! आप अत्यंत शक्ति से संपन्न हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य-अन्त भी नहीं हैं. आप निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो. आपको मेरा प्रणाम है.' नारदजी से इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु बोले- 'हे मुनि श्रेष्ठ! आपके मन में क्या है. आपका किस काम के लिए यहां आगमन हुआ है? निःसंकोच कहें.' तब नारदमुनि ने कहा- 'मृत्युलोक में सब मनुष्य, जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों द्वारा अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित हैं. हे नाथ! यदि आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइए उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं.' विष्णु भगवान ने कहा- 'हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने यह बहुत अच्छा प्रश्न किया है. जिस व्रत के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, वह व्रत मैं तुमसे कहना चाहता हूं. बहुत पुण्य देने वाला, स्वर्ग तथा मृत्यु दोनों में दुर्लभ, एक उत्तम व्रत है जो आज मैं प्रेम वश होकर तुमसे कहता हूं. श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत विधि-विधानपूर्वक संपन्न करके मनुष्य इस धरती पर सुख भोगकर, मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है.' श्री विष्णु भगवान के यह वचन सुनकर नारद मुनि बोले- 'हे भगवान उस व्रत का फल क्या है? क्या विधान है? इससे पूर्व यह व्रत किसने किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए. कृपया मुझे विस्तार से बताएं.' श्री विष्णु ने कहा- 'हे नारद! दुःख-शोक आदि दूर करने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है. भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्री सत्यनारायण भगवान की संध्या के समय ब्राह्मणों और बंधुओं के साथ धर्मपरायण होकर पूजा करे. भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, शहद, घी, शकर अथवा गुड़, दूध और गेहूं का आटा सवाया लें (गेहूं के अभाव में साठी का चूर्ण भी ले सकते हैं). इन सबको भक्ति भाव से भगवान को अर्पण करें. बंधु-बांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराएं. इसके पश्चात स्वयं भोजन करें. रात्रि में नृत्य-गीत आदि का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करें. कलिकाल में मृत्युलोक में यही एक लघु उपाय है, जिससे अल्प समय और अल्प धन में महान पुण्य प्राप्त हो सकता है. द्वितीय अध्याय सूतजी ने कहा- 'हे ऋषियों! जिन्होंने पहले समय में इस व्रत को किया है. उनका इतिहास कहता हूं आप सब ध्यान से सुनें. सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था. वह ब्राह्मण भूख और प्यास से बेचैन होकर पृथ्वी पर घूमता रहता था. ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री विष्णु भगवान ने ब्राह्मण को देखकर एक दिन बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर आदर के साथ पूछा-'हे विप्र! तुम नित्य ही दुःखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूं.'; दरिद्र ब्राह्मण ने कहा- 'मैं निर्धन ब्राह्मण हूं, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूं. हे भगवन यदि आप इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय जानते हों तो कृपा कर मुझे बताएं.' वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किए श्री विष्णु भगवान ने कहा- 'हे ब्राह्मण! श्री सत्यनारायण भगवान मनवांछित फल देने वाले हैं. इसलिए तुम उनका पूजन करो, इससे मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाता है.' दरिद्र ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान अंतर्ध्यान हो गए. जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बताया है, मैं उसको अवश्य करूंगा, यह निश्चय कर वह दरिद्र ब्राह्मण घर चला गया. परंतु उस रात्रि उस दरिद्र ब्राह्मण को नींद नहीं आई. अगले दिन वह जल्दी उठा और श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय कर भिक्षा माँगने के लिए चल दिया. उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला, जिससे उसने पूजा का सामान खरीदा और घर आकर अपने बंधु-बांधवों के साथ भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया. इसके करने से वह दरिद्र ब्राह्मण सब दुःखों से मुक्त होकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हो गया. तभी से वह विप्र हर मास व्रत करने लगा. इसी प्रकार सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो शास्त्रविधि के अनुसार करेगा, वह सब पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होगा. आगे जो मनुष्य पृथ्वी पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करेगा वह सब दुःखों से मुक्त हो जाएगा. इस तरह नारदजी से सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ व्रत मैंने तुमसे कहा. हे विप्रों! अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझे बताएं? ऋषियों ने कहा- 'हे मुनीश्वर! संसार में इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया यह हम सब सुनना चाहते हैं. इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है.' श्री सूतजी ने कहा- 'हे मुनियों! जिस-जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है उन सबकी कथा सुनो. एक समय वह ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बंधु-बांधवों के साथ अपने घर पर व्रत कर रहा था. उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा व्यक्ति वहां आया. उसने सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर बाहर रख दिया और विप्र के मकान में चला गया. प्यास से व्याकुल लकड़हारे ने विप्र को व्रत करते देखा. वह प्यास को भूल गया. उसने उस विप्र को प्रणाम किया और पूछा- 'हे विप्र! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत से आपको क्या फल मिलता है? कृपा करके मुझे बताएं.' ब्राह्मण ने कहा- 'सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत है. इनकी ही कृपा से मेरे यहां धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई.' विप्र से इस व्रत के बारे में जानकर वह लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ. भगवान का चरणामृत ले और भोजन करने के बाद वह अपने घर को चला गया. अगले दिन लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से भगवान सत्यनारायण का उत्तम व्रत करूंगा. मन में ऐसा विचार कर वह लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वहां गया. उस दिन उसे उन लकड़ियों के चौगुने दाम मिले. वह बूढ़ा लकड़हारा अति प्रसन्न होकर पके केले, शकर, शहद, घी, दुग्ध, दही और गेहूं का चूर्ण इत्यादि श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत की सभी सामग्री लेकर अपने घर आ गया. फिर उसने अपने बंधु-बांधवों को बुलाकर विधि-विधान के साथ भगवान का पूजन और व्रत किया. उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन-पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुंठ को चला गया.' तृतीय अध्याय श्री सूतजी ने कहा- 'हे श्रेष्ठ मुनियों! अब एक और कथा कहता हूं. पूर्वकाल में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था. वह सत्य वक्ता और जितेन्द्रिय था. प्रतिदिन देवस्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था. उसकी पत्नी सुंदर और सती साध्वी थी. भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया. उस समयवहां साधु नामक एक वैश्य आया. उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था. राजा को व्रत करते देख उसने विनय के साथ पूछा- 'हे राजन! भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है. कृपया आप मुझे भी बताइए.' महाराज उल्कामुख ने कहा- 'हे साधु वैश्य! मैं अपने बंधु-बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूं.' राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा- 'हे राजन! मुझे भी इसका सब विधान बताइए. मैं भी आपके कथानुसार इस व्रत को करूंगा. मेरे यहां भी कोई संतान नहीं है. मुझे विश्वास है कि इससे निश्चय ही मेरे यहां भी संतान होगी.' राजा से सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य खुशी-खुशी अपने घर आया. वैश्य ने अपनी पत्नी लीलावती से संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और प्रण किया कि जब हमारे यहां संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा. एक दिन उसकी पत्नी लीलावती सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर गर्भवती हो गई. दसवें महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया. कन्या का नाम कलावती रखा गया. इसके बाद लीलावती ने अपने पति को स्मरण दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का संकल्प किया था अब आप उसे पूरा कीजिए. साधु वैश्य ने कहा- 'हे प्रिय! मैं कन्या के विवाह पर इस व्रत को करूंगा.' इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने चला गया. काफी दिनों पश्चात वह लौटा तो उसने नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को खेलते देखा. वैश्य ने तत्काल एक दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर की तलाश करो. साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर दूत कंचननगर पहुँचा और उनकी लड़की के लिए एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया. वणिक पुत्र को देखकर साधु नामक वैश्य ने अपने बंधु-बांधवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया. वैश्य विवाह के समय भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूलगया. इस पर श्री सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए. उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा. अपने कार्य में कुशल साधु नामक वैश्य अपने जामाता सहित नावों को लेकर व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया. दोनों ससुर-जमाई चंद्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे. एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था. राजा के दूतों को अपने पीछे आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को उसी नाव में चुपचाप रख दिया, जहाँ वे ससुर-जमाई ठहरे थे. ऐसा करने के बाद वह भाग गया. जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो ससुर-जामाता दोनों को बाँधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले- 'हम ये दो चोर पकड़कर लाए हैं. कृपया बताएं कि इन्हें क्या सजा दी जाए.' राजा ने बिना उन दोनों की बात सुने ही उन्हें कारागार में डालने की आज्ञा दे दी. इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कठिन कारावास में डाल दिया गया तथा उनका धन भी छीन लिया गया. सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण साधु वैश्य की पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुखी हुई. उनके घरों में रखा धन चोर ले गए. एक दिन शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुखित हो भोजन की चिंता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गई. उसने ब्राह्मण को श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते देखा. उसने कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई. माता ने कलावती से पूछा- 'हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही व तेरे मन में क्या है?' कलावती बोली- 'हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायरण भगवान का व्रत होते देखा है.' कलावती के वचन सुनकर लीलावती ने सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की. उसने परिवार और बंधुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन व व्रत किया और वर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही घर वापस लौट आएं. साथ ही भगवान से प्रार्थना की कि हम सबका अपराध क्षमा करो. श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए. उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- 'हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बंदी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो अन्यथा मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा.' राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए. प्रातःकाल राजा चंद्रकेतु ने सभा में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाया जाए. दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया. राजा ने उनसे कहा- 'हे महानुभावों! तुम्हें भावीवश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है. अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो.' ऐसा कहकर राजा ने उनको नए-नए वस्त्राभूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया था उससे दूना लौटाकर आदर से विदा किया. दोनों वैश्व अपने घर को चल दिए. चतुर्थ अध्याय श्री सूतजी ने आगे कहा- 'वैश्य और उसके जमाई ने मंगलाचार करके यात्रा आरंभ की और अपने नगर की ओर चल पड़े. उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दंडी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने उससे पूछा- 'हे साधु! तेरी नाव में क्या है?' अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला- 'हे दंडी ! आप क्यों पूछते हैं? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल और पत्ते भरे हैं.' वैश्य का कठोर वचन सुनकर दंडी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने कहा- 'तुम्हारा वचन सत्य हो!' ऐसा कहकर वे वहां से कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए. दंडी महाराजा के जाने के पश्चात वैश्य ने नित्यक्रिया से निवृत्त होने के बाद नाव को उंची उठी देखकर अचंभा किया तथा नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्च्छित हो जमीन पर गिर पड़ा. मूर्च्छा खुलने पर अत्यंत शोक प्रकट करने लगा. तब उसके जामाता ने कहा- 'आप शोक न करें. यह दंडी महाराज का श्राप है, अतः उनकी शरण में ही चलना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी.' जामाता के वचन सुनकर वह साधु नामक वैश्य दंडी महाराज के पास पहुँचा और भक्तिभाव से प्रणाम करके बोला- 'मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे उसके लिए मुझे क्षमा करें.' ऐसा कहकर वैश्य रोने लगा. तब दंडी भगवान बोले- 'हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से तुझे बार-बार दुःख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है.' साधु नामक वैश्य ने कहा- 'हे भगवन! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जान पाते, तब मैं अज्ञानी भला कैसे जान सकता हूं. आप प्रसन्न होइए, मैं अपनी सामर्र्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूंगा. मेरी रक्षा करो और पहले के समान मेरी नौका को धन से पूर्ण कर दो.' उसके भक्ति युक्त वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वर देकर अंतर्ध्यान हो गए. तब ससुर व जामाता दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है. फिर वह भगवान सत्यनारायण का पूजन कर जामाता सहित अपने नगर को चला. जब वह अपने नगर के निकट पहुँचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा. दूत ने साधु नामक वैश्य के घर जाकर उसकी पत्नी को प्रणाम किया और कहा- 'आपके पति अपने दामाद सहित इस नगर के समीप आ गए हैं.' लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं. दूत का वचन सुनकर साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन पूर्ण किया और अपनी पुत्री से कहा- 'मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूं, तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना.' परंतु कलावती पूजन एवं प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शनों के लिए चली गई. प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव रुष्ट हो गए फलस्वरूप उन्होंने उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया. कलावती अपने पति को न देख रोती हुई जमीन पर गिर पड़ी. नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुई देख साधु नामक वैश्य दुखित हो बोला- 'हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करो.' उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गए. आकाशवाणी हुई- 'हे वैश्य! तेरी कन्या मेरा प्रसाद छोड़कर आई है इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है. यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसका पति अवश्य मिलेगा.' आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद खाया और फिर आकर अपने पति के दर्शन किए. तत्पश्चात साधु वैश्य ने वहीं बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया. वह इस लोक का सुख भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गया. पंचम अध्याय श्री सूतजी ने आगे कहा- 'हे ऋषियों! मैं एक और भी कथा कहता हूं. उसे भी सुनो. प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था. उसने भगवान सत्यदेव का प्रसाद त्याग कर बहुत दुःख पाया. एक समय राजा वन में वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया. वहां उसने ग्वालों को भक्ति भाव से बंधु-बांधवों सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करते देखा, परंतु राजा देखकर भी अभिमानवश न तोवहां गया और न ही सत्यदेव भगवान को प्रणाम ही किया. जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उनके सामने रखा तो वह प्रसाद त्याग कर अपने नगर को चला गया. नगर में पहुँचकर उसने देखा कि उसका सब कुछ नष्ट हो गया है. वह समझ गया कि यह सब भगवान सत्यदेव ने ही किया है. तब वह उसी स्थान पर वापस आया और ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यनारायण की कृपा से सब-कुछ पहले जैसा ही हो गया और दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को चला गया. जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी. निर्धन धनी और बंदी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है. संतानहीन को संतान प्राप्त होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में वह बैकुंठ धाम को जाता है. जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिए. शतानंद नामक ब्राह्मण ने सुदामा के रूप में जन्म लेकर श्रीकृष्ण की भक्ति कर मोक्ष प्राप्त किया. उल्कामुख नाम के महाराज, राजा दशरथ बने और श्री रंगनाथ का पूजन कर बैकुंठ को प्राप्त हुए. साधु नाम के वैश्य ने धर्मात्मा व सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर अपनी देह को आरे से चीरकर दान करके मोक्ष को प्राप्त हुआ. महाराज तुंगध्वज स्वयंभू मनु हुए? उन्होंने बहुत से लोगों को भगवान की भक्ति में लीन कर मोक्ष प्राप्त किया. लकड़हारा भील अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा हुआ, जिसने भगवान राम के चरणों की सेवा कर मोक्ष प्राप्त किया.