6/17/16

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - आत्मसंयमयोग अध्याय ६


श्री भगवान कहते हैं: सुमुखि ! अब मैं छठे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनने वाले मनुष्यों के लिए मुक्ति आसान हो जाती है, गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) नामक एक विशाल नगर है, जहाँ मैं पिप्लेश के नाम से विख्यात होकर रहता हूँ, उस नगर में जनश्रुति नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डल की प्रजा को अत्यन्त प्रिये थे, उनका प्रताप मार्तण्ड-मण्डल के प्रचण्ड तेज के समान जान पड़ता था। 

प्रतिदिन होने वाले उनके यज्ञ के धुएँ से नन्दनवन के कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे, मानो राजा की असाधारण दान-शीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों, उनके यज्ञ में प्राप्त पुरोडाश के रसास्वादन में सदा आसक्त होने के कारण देवता लोग कभी प्रतिष्ठानपुर को छोड़कर बाहर नहीं जाते थे, उनके दान के समय छोड़े हुए जल की धारा, प्रताप-रूपी तेज और यज्ञ के धूमों से पुष्ट होकर मेघ ठीक समय पर वर्षा करते थे। 

उस राजा के शासन काल में खेती में होने वाले छः प्रकार के उपद्रवों के लिए कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियों का सर्वत्र प्रसार होता था, वे बावडी़, कुएँ और पोखरें खुदवाने के बहाने मानो प्रतिदिन पृथ्वी के भीतर की निधियों का अवलोकन करते थे, एक समय राजा के दान, तप, यज्ञ और प्रजा-पालन से संतुष्ट होकर स्वर्ग के देवता उन्हें वर देने के लिए आये, वे कमल-नाल के समान उज्जवल हंसों का रूप धारण कर अपनी पँख हिलाते हुए आकाश मार्ग से चलने लगे, 

उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे, उनमें से भद्राश्व आदि दो-तीन हंस वेग से उड़कर आगे निकल गये, तब पीछे वाले हंसों ने आगे जाने वालों को सम्बोधित करके कहाः "अरे भाई भद्राश्व ! तुम लोग वेग से चलकर आगे क्यों हो गये? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है, इसमें हम सबको साथ मिलकर चलना चाहिए, क्या तुम्हे दिखाई नहीं देता, यह सामने ही पुण्यमूर्ति महाराज जानश्रुति का तेजपुंज अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशमान हो रहा है? उस तेज से भस्म होने की आशंका है, अतः सावधान होकर चलना चाहिए।" पीछेवाले हंसों के ये वचन सुनकर आगे वाले हंस हँस पड़े और उच्च स्वर से उनकी बातों की अवहेलना करते हुए बोलेः "अरे भाई ! क्या इस राजा जानश्रुति का तेज ब्रह्मवादी महात्मा रैक्व के तेज से भी अधिक तीव्र है?" 

हंसों की ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महल की छत से उतर गये और सुखपूर्वक आसन पर विराजमान हो अपने सारथि को बुलाकर बोलेः "जाओ, महात्मा रैक्व को यहाँ ले आओ", राजा का यह अमृत के समान वचन सुनकर मह नामक सारथी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगर से बाहर निकला, सबसे पहले उसने मुक्ति दायिनी काशी पुरी की यात्रा की, जहाँ जगत के स्वामी भगवान विश्वनाथ मनुष्यों को उपदेश दिया करते हैं, उसके बाद वह गया क्षेत्र में पहुँचा, जहाँ प्रफुल्ल नेत्रों वाले भगवान गदाधर सम्पूर्ण लोकों का उद्धार करने के लिए निवास करते हैं। 

तदनन्तर नाना तीर्थों में भ्रमण करता हुआ सारथी पाप नाशिनी मथुरा पुरी में गया, यह भगवान श्री कृष्ण का आदि स्थान है, जो परम महान तथा मोक्ष प्रदान कराने वाला है, वेद और शास्त्रों में वह तीर्थ त्रिभुवन-पति भगवान गोविन्द के अवतार स्थान के नाम से प्रसिद्ध है, नाना देवता और ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं, मथुरा नगर यमुना के किनारे शोभा पाता है, उसकी आकृति अर्द्धचन्द्र के समान प्रतीत होती है, वह सब तीर्थों के निवास से परिपूर्ण है, परम आनन्द प्रदान करने के कारण सुन्दर प्रतीत होता है, गोवर्धन पर्वत होने से मथुरा मण्डल की शोभा और भी बढ़ गयी है, वह पवित्र वृक्षों और लताओं से आवृत्त है, उसमें बारह वन हैं, वह परम पुण्यमय था सबको विश्राम देने वाले श्रुतियों के सारभूत भगवान श्रीकृष्ण की आधार भूमि है।

तत्पश्चात मथुरा से पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर बहुत दूर तक जाने पर सारथी को काश्मीर नामक नगर दिखाई दिया, जहाँ शंख के समान उज्जवल गगनचुम्बी महलों की पंक्तियाँ भगवान शंकर के अट्टहास की शोभा पाती हैं, जहाँ ब्राह्मणों के शास्त्रीय आलाप सुनकर मूक मनुष्य भी सुन्दर वाणी और पर्दों का उच्चारण करते हुए देवता के समान हो जाते हैं, जहाँ निरन्तर होने वाले यज्ञ-धूम से व्याप्त होने के कारण आकाश-मंडल मेघों से धुलते रहने पर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ते, जहाँ उपाध्याय के पास आकर छात्र जन्म कालीन अभ्यास से ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ मणिकेश्वर नाम से प्रसिद्ध भगवान चन्द्रशेखर देहधारियों को वरदान देने के लिए नित्य निवास करते हैं। 

काश्मीर के राजा मणिकेश्वर ने दिग्विजय में समस्त राजाओं को जीतकर भगवान शिव का पूजन किया था, तभी से उनका नाम मणिकेश्वर हो गया था, उन्हीं के मन्दिर के दरवाजे पर महात्मा रैक्व एक छोटी सी गाड़ी पर बैठे अपने अंगों को खुजलाते हुए वृक्ष की छाया का सेवन कर रहे थे, इसी अवस्था में सारथी ने उन्हें देखा, राजा के बताये हुए भिन्न-भिन्न चिह्नों से उसने शीघ्र ही रैक्व को पहचान लिया और उनके चरणों में प्रणाम करके कहाः "ब्राह्मण ! आप किस स्थान पर रहते हैं? आपका पूरा नाम क्या है? आप तो सदा स्वच्छंद विचरने वाले हैं, फिर यहाँ किसलिए ठहरे हैं? इस समय आपका क्या करने का विचार है?" 

सारथी के ये वचन सुनकर परमानन्द में निमग्न महात्मा रैक्व ने कुछ सोचकर उससे कहाः "यद्यपि हम पूर्णकाम हैं – हमें किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, तथापि कोई भी हमारी मनोवृत्ति के अनुसार परिचर्या कर सकता है," रैक्व के हार्दिक अभिप्राय को आदप-पूर्वक ग्रहण करके सारथी धीरे से राजा के पास चल दिया, वहाँ पहुँचकर राजा को प्रणाम करके उसने हाथ जोड़कर सारा समाचार निवदेन किया, उस समय स्वामी के दर्शन से उसके मन में बड़ी प्रसन्नता थी, सारथि के वचन सुनकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे। 

उनके हृदय में रैक्व का सत्कार करने की श्रद्धा जागृत हुई, उन्होंने दो खच्चरियों से जुती हुई गाड़ी लेकर यात्रा की, साथ ही मोती के हार, अच्छे-अच्छे वस्त्र और एक सहस्र गौएँ भी ले लीं, काश्मीर-मण्डल में महात्मा रैक्व जहाँ रहते थे उस स्थान पर पहुँच कर राजा ने सारी वस्तुएँ उनके आगे निवेदन कर दीं और पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग प्रणाम किया, महात्मा रैक्व अत्यन्त भक्ति के साथ चरणों में पड़े हुए राजा जानश्रुति पर कुपित हो उठे और बोलेः "रे शूद्र ! तू दुष्ट राजा है, क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं जानता? यह खच्चरियों से जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा, ये वस्त्र, ये मोतियों के हार और ये दूध देने वाली गौएँ भी स्वयं ही ले जा," इस तरह आज्ञा देकर रैक्व ने राजा के मन में भय उत्पन्न कर दिया, तब राजा ने शाप के भय से महात्मा रैक्व के दोनों चरण पकड़ लिए और भक्ति-पूर्वक कहाः "ब्राह्मण ! मुझ पर प्रसन्न होइये, भगवन ! आपमें यह अदभत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये।"

रैक्व ने कहाः राजन ! मैं प्रतिदिन गीता के छठे अध्याय का जप करता हूँ, इसी से मेरी तेजोराशि देवताओं के लिए भी दुःसह है,तदनन्तर परम बुद्धिमान राजा जानश्रुति ने यत्नपूर्वक महात्मा रैक्व से गीता के छठे अध्याय का अभ्यास किया, इससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई, रैक्व पूर्ववत् मोक्ष-दायक गीता के छठे अध्याय का जप जारी रखते हुए भगवान मणिकेश्वर के समीप आनन्द मग्न हो रहने लगे, हंस का रूप धारण करके वरदान देने के लिए आये हुए देवता भी विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये, जो मनुष्य सदा इस एक ही अध्याय का जप करता है, वह भी भगवान विष्णु के स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

(योग में स्थित मनुष्य के लक्षण) 

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ (१)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की इच्छा से अपना कर्तव्य समझ कर कार्य करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, न तो अग्नि को त्यागने वाला ही सन्यासी होता है, और न ही कार्यों को त्यागने वाला ही योगी होता है। (१)

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ (२)

भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग (परब्रह्म से मिलन कराने वाला)समझ, क्योंकि इन्द्रिय-सुख (शरीर के सुख) की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग (परमात्मा) को प्राप्त नहीं हो सकता है। (२)

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ (३)

भावार्थ : मन को वश में करने की इच्छा वाले मनुष्य को योग की प्राप्ति के लिये कर्म करना कारण होता है, और योग को प्राप्त होते-होते सभी सांसारिक इच्छाओं का अभाव हो जाना ही कारण होता है। (३)

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥ (४)

भावार्थ : जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके, न तो शारीरिक सुख के लिये कार्य करता है, और न ही फ़ल की इच्छा से कार्य में प्रवृत होता है, उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। (४)

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ (५)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से उद्धार करने का प्रयत्न करे, और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी है। (५)

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥ (६)

भावार्थ : जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका वह मन ही परम-मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही परम-शत्रु के समान होता है। (६)

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ (७)

भावार्थ : जिसने मन को वश में कर लिया है, उसको परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है, उस मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान एक समान होते है। (७)

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥ (८)

भावार्थ : ऎसा मनुष्य स्थिर चित्त वाला और इन्द्रियों को वश में करके, परमात्मा के ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके, पूर्ण सन्तुष्ट रहता है, ऎसे परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिये मिट्टी, पत्थर और सोना एक समान होते है। (८)

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ (९)

भावार्थ : ऎसा मनुष्य स्वभाव से सभी का हित चाहने वाला, मित्रों और शत्रुओं में, तटस्थों और मध्यस्थों में, शुभ-चिन्तकों और ईर्ष्यालुओं में, पुण्यात्माओं और पापात्माओं में भी एक समान भाव रखने वाला होता है। (९)

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ (१०)

भावार्थ : ऎसा मनुष्य निरन्तर मन सहित शरीर से किसी भी वस्तु के प्रति आकर्षित हुए बिना तथा किसी भी वस्तु का संग्रह किये बिना परमात्मा के ध्यान में एक ही भाव से स्थित रहने वाला होता है। (१०)


(योग में स्थित होने की विधि और लक्षण) 

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥ (११)

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ (१२)

भावार्थ : योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को एकान्त स्थान में पवित्र भूमि में न तो बहुत ऊँचा और न ही बहुत नीचा, कुशा के आसन पर मुलायम वस्त्र या मृगछाला बिछाकर, उस पर दृड़ता-पूर्वक बैठकर, मन को एक बिन्दु पर स्थित करके, चित्त और इन्द्रिओं की क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना चाहिये। (११,१२)

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥ (१३)

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ (१४)

भावार्थ : योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को अचल और स्थिर रखकर, नासिका के आगे के सिरे पर दृष्टि स्थित करके, इधर-उधर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ, बिना किसी भय से, इन्द्रिय विषयों से मुक्त ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित, मन को भली-भाँति शांत करके, मुझे अपना लक्ष्य बनाकर और मेरे ही आश्रय होकर, अपने मन को मुझमें स्थिर करके, मनुष्य को अपने हृदय में मेरा ही चिन्तन करना चाहिये। (१३,१४)

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ (१५)

भावार्थ : इस प्रकार निरन्तर शरीर द्वारा अभ्यास करके, मन को परमात्मा स्वरूप में स्थिर करके, परम-शान्ति को प्राप्त हुआ योग में स्थित मनुष्य ही सभी सांसारिक बन्धन से मुक्त होकर मेरे परम-धाम को प्राप्त कर पाता है। (१५)

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ (१६)

भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित मनुष्य को न तो अधिक भोजन करना चाहिये और न ही कम भोजन करना चाहिये, न ही अधिक सोना चाहिये और न ही सदा जागते रहना चाहिये। (१६)

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ (१७)

भावार्थ : नियमित भोजन करने वाला, नियमित चलने वाला, नियमित जीवन निर्वाह के लिये कार्य करने वाला और नियमित सोने वाला योग में स्थित मनुष्य सभी सांसारिक कष्टों से मुक्त हो जाता है। (१७)

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ (१८)

भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का योग के अभ्यास द्वारा विशेष रूप से मन जब आत्मा में स्थित परमात्मा में ही विलीन हो जाता है, तब वह सभी प्रकार की सांसारिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय वह पूर्ण रूप से योग में स्थिर कहा जाता है। (१८)

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ (१९)

भावार्थ : उदाहरण के लिये जिस प्रकार बिना हवा वाले स्थान में दीपक की लौ बिना इधर-उधर हुए स्थिर रहती है, उसी प्रकार योग में स्थित मनुष्य का मन निरन्तर आत्मा में स्थित परमात्मा में स्थिर रहता है। (१९)

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ (२०)

भावार्थ : योग के अभ्यास द्वारा जिस अवस्था में सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं, उस अवस्था (समाधि) में मनुष्य अपनी ही आत्मा में परमात्मा को साक्षात्कार करके अपनी ही आत्मा में ही पूर्ण सन्तुष्ट रहता है। (२०)

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ (२१)

भावार्थ : तब वह अपनी शुद्ध चेतना द्वारा प्राप्त करने योग्य परम-आनन्द को शरीर से अलग जानता है, और उस अवस्था में परमतत्व परमात्मा में स्थित वह योगी कभी भी विचलित नही होता है। (२१)

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ (२२)

भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम-आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भरी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है। (२२)

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥ (२३)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए है योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे। (२३)

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ (२४)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे। (२४)

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥ (२५)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे। (२५)

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥ (२६)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे। (२६)

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥ (२७)

भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है। (२७)

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ (२८)

भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है। (२८)

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ (२९)

भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है। (२९)

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (३०)

भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है। (३०)

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ (३१)

भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है (३१)

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ (३२)

भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये। (३२)


(योग द्वारा मन का निग्रह)

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥ (३३)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! यह योग की विधि जिसके द्वारा समत्व-भाव दृष्टि मिलती है जिसका कि आपके द्वारा वर्णन किया गया है, मन के चंचलता के कारण मैं इस स्थिति में स्वयं को अधिक समय तक स्थिर नही देखता हूँ। (३३)

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥ (३४)

भावार्थ : हे कृष्ण! क्योंकि यह मन निश्चय ही बड़ा चंचल है, अन्य को मथ डालने वाला है और बड़ा ही हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। (३४)

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ (३५)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं को त्याग (वैराग्य)और निरन्तर अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है। (३५)

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ (३६)

भावार्थ : जिस मनुष्य द्वारा मन को वश में नही किया गया है, ऐसे मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) असंभव है लेकिन मन को वश में करने वाले प्रयत्नशील मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) सहज होता है - ऎसा मेरा विचार है। (३६)


(योग-भ्रष्ट हुए मनुष्य की गति) 

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ (३७)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! प्रारम्भ में श्रद्धा-पूर्वक योग में स्थिर रहने वाला किन्तु बाद में योग से विचलित मन वाला असफ़ल-योगी परम-सिद्धि को न प्राप्त करके किस लक्ष्य को प्राप्त करता है? (३७)

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ (३८)

भावार्थ : हे महाबाहु कृष्ण! परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग से विचलित हुआ जो कि न तो सांसारिक भोग को ही भोग पाया और न ही आपको प्राप्त कर सका, ऎसा मोह से ग्रसित मनुष्य क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह दोनों ओर से नष्ट तो नहीं हो जाता? (३८)

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ (३९)

भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से केवल आप ही दूर कर सकते हैं क्योंकि आपके अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय को दूर करने वाला मिलना संभव नहीं है। (३९)

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ (४०)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! उस असफ़ल योगी का न तो इस जन्म में और न अगले जन्म में ही विनाश होता है, क्योंकि हे प्रिय मित्र! परम-कल्याणकारी नियत-कर्म करने वाला कभी भी दुर्गति को प्राप्त नही होता है। (४०)

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ (४१)

भावार्थ : योग में असफ़ल हुआ मनुष्य स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें अनेकों वर्षों तक जिन इच्छाओं के कारण योग-भ्रष्ट हुआ था, उन इच्छाओं को भोग करके फिर सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। (४१)

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥ (४२)

भावार्थ : अथवा उत्तम लोकों में न जाकर स्थिर बुद्धि वाले विद्वान योगियों के परिवार में जन्म लेता है, किन्तु इस संसार में इस प्रकार का जन्म निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है। (४२)

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ (४३)

भावार्थ : हे कुरुनन्दन! ऎसा जन्म प्राप्त करके वहाँ उसे पूर्व-जन्म के योग-संस्कार पुन: प्राप्त हो जाते है और उन संस्कारों के प्रभाव से वह परमात्मा प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करने के उद्देश्य फिर से प्रयत्न करता है। (४३)

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ (४४)

भावार्थ : पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण वह निश्चित रूप से परमात्म-पथ की ओर स्वत: ही आकर्षित हो जाता है, ऎसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों का उल्लंघन करके योग में स्थित हो जाता है। (४४)

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥ (४५)

भावार्थ : ऎसा योगी समस्त पाप-कर्मों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों के कठिन अभ्यास से इस जन्म में प्रयत्न करते हुए परम-सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात् परम-गति को प्राप्त करता है। (४५)

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ (४६)

भावार्थ : तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ है, शास्त्र-ज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ माना जाता है और सकाम कर्म करने वालों की अपेक्षा भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये हे अर्जुन! तू योगी बन। (४६)

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ (४७)

भावार्थ : सभी प्रकार के योगियों में से जो पूर्ण-श्रद्धा सहित, सम्पूर्ण रूप से मेरे आश्रित हुए अपने अन्त:करण से मुझको निरन्तर स्मरण (दिव्य प्रेमाभक्ति) करता है, ऎसा योगी मेरे द्वारा परम-योगी माना जाता है। (४७)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्ररूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में ध्यान-योग नाम का छठा अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - कर्मसंन्यासयोग अध्याय ५




श्री भगवान कहते हैं: हे देवी! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्र देश में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है, उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था, वह वेदपाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वदा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल बजाते हुए उसने नाच-गान में मन लगाया, गीत, नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली और उसी से उसका राज भवन में भी प्रवेश हो गया।

वह राजा के साथ रहने लगा, स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था, धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से उच्छ्रंखल होकर वह एकान्त में राजा से दूसरों के दोष बतलाने लगा, पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा, वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ विहार करने की इच्छा से सदा उन्हीं की खोज में घूमा करती थी, उसने पति को अपने मार्ग का कण्टक समझकर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया, इस प्रकार प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक पहुँचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।

अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर शरीर को त्याग कर घोर नरक भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई, एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से इधर उधर फुदक रही थी, इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्वजन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नखों से फाड़ डाला, शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी, गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा, इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलियों ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया, उसकी पूर्वजन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी, फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया।

यमराज के दूत उन दोनों को यमलोक में ले गये, वहाँ अपने पूर्वकृत पाप कर्म को याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे, तदनन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात् खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है, तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी, यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगेः "भगवन ! हम दोनों ने पूर्वजन्म में अत्यन्त घृणित पाप का संचय किया है, फिर हमें मनोवाञ्छित लोकों में भेजने का क्या कारण है?"

यमराज ने कहा: गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्म-ज्ञानी रहते थे, वे एकान्तवासी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे, प्रतिदिन गीता के पाँचवें अध्याय का जप करना उनका सदा नियम था, पाँचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्ध चित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था, गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्ही महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये, अतः अब तुम दोनों मनोवाञ्छित लोकों को जाओ, क्योंकि गीता के पाँचवें अध्याय के माहात्म्य से तुम दोनों शुद्ध हो गये हो।

श्री भगवान कहते हैं: सबके प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

(सांख्य-योग और कर्म-योग के भेद)

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ॥ (१)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! कभी आप सन्यास-माध्यम (सर्वस्व का न्यास=ज्ञान योग)से कर्म करने की और कभी निष्काम माध्यम से कर्म करने (निष्काम कर्म-योग) की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में से एक जो आपके द्वारा निश्चित किया हुआ हो और जो परम-कल्याणकारी हो उसे मेरे लिये कहिए। (१)

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ (२)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - सन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्य-योग) और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्म-योग), ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाला है परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ है। (२)

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ (३)

भावार्थ : हे महाबाहु! जो मनुष्य न तो किसी से घृणा करता है और न ही किसी की इच्छा करता है, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि ऎसा मनुष्य राग-द्वेष आदि सभी द्वन्द्धों को त्याग कर सुख-पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। (३)

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥ (४)

भावार्थ : अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है। (४)

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ (५)

भावार्थ : जो ज्ञान-योगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही निष्काम कर्म-योगियों को भी प्राप्त होता है, इसलिए जो मनुष्य सांख्य-योग और निष्काम कर्म-योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही वास्तविक सत्य को देख पाता है। (५)

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ (६)

भावार्थ : हे महाबाहु! निष्काम कर्म-योग (भक्ति-योग) के आचरण के बिना (संन्यास) सर्वस्व का त्याग दुख का कारण होता है और भगवान के किसी भी एक स्वरूप को मन में धारण करने वाला "निष्काम कर्म-योगी" परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र प्राप्त हो जाता है। (६)


(कर्म-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ (७)

भावार्थ : "कर्म-योगी" इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है और सभी प्राणीयों की आत्मा का मूल-स्रोत परमात्मा में निष्काम भाव से मन को स्थित करके कर्म करता हुआ भी कभी कर्म से लिप्त नहीं होता है। (७)

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥ (८)

भावार्थ : "कर्म-योगी" परमतत्व-परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ। (८)

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥ (९)

भावार्थ : "कर्म-योगी" बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ भी, यही सोचता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हो रही हैं, ऎसी धारणा वाला होता है। (९)

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ (१०)

भावार्थ : "कर्म-योगी" सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है। (१०)

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ (११)

भावार्थ : "कर्म-योगी" निष्काम भाव से शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा केवल आत्मा की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं। (११)

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)

भावार्थ : "कर्म-योगी" सभी कर्म के फलों का त्याग करके परम-शान्ति को प्राप्त होता है और जो योग में स्थित नही वह कर्म-फ़ल को भोगने की इच्छा के कारण कर्म-फ़ल में आसक्त होकर बँध जाता है। (१२)


(सांख्य-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा मन से समस्त कर्मों का परित्याग करके, वह न तो कुछ करता है और न ही कुछ करवाता है तब वह नौ-द्वारों वाले नगर (स्थूल-शरीर) में आनंद-पूर्वक आत्म-स्वरूप में स्थित रहता है। (१३)

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (१४)

भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा देह का कर्ता न होने के कारण इस लोक में उसके द्वारा न तो कर्म उत्पन्न होते हैं और न ही कर्म-फलों से कोई सम्बन्ध रहता है बल्कि यह सब प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किये जाते है। (१४)

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ (१५)

भावार्थ : शरीर में स्थित परमात्मा न तो किसी के पाप-कर्म को और न ही किसी के पुण्य-कर्म को ग्रहण करता है किन्तु जीवात्मा मोह से ग्रसित होने के कारण परमात्मा जीव के वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है। (१५)

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ (१६)

भावार्थ : किन्तु जब मनुष्य का अज्ञान तत्वज्ञान (परमात्मा का ज्ञान) द्वारा नष्ट हो जाता है, तब उसके ज्ञान के दिव्य प्रकाश से उसी प्रकार परमतत्व-परमात्मा प्रकट हो जाता है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से संसार की सभी वस्तुएँ प्रकट हो जाती है। (१६)

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ (१७)

भावार्थ : जब मनुष्य बुद्धि और मन से परमात्मा की शरण-ग्रहण करके परमात्मा के ही स्वरूप में पूर्ण श्रद्धा-भाव से स्थित होता है तब वह मनुष्य तत्वज्ञान के द्वारा सभी पापों से शुद्ध होकर पुनर्जन्म को प्राप्त न होकर मुक्ति को प्राप्त होता हैं। (१७)

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ (१८)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य विद्वान ब्राह्मण और विनम्र साधु को तथा गाय, हाथी, कुत्ता और नर-भक्षी को एक समान दृष्टि से देखने वाला होता हैं। (१८)

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ (१९)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य का मन सम-भाव में स्थित रहता है, उसके द्वारा जन्म-मृत्यु के बन्धन रूपी संसार जीत लिया जाता है क्योंकि वह ब्रह्म के समान निर्दोष होता है और सदा परमात्मा में ही स्थित रहता हैं। (१९)

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ (२०)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य न तो कभी किसी भी प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित है और न ही अप्रिय वस्तु को पाकर विचलित होता है, ऎसा स्थिर बुद्धि, मोह-रहित, ब्रह्म को जानने वाला सदा परमात्मा में ही स्थित रहता है। (२०)

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ (२१)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य बाहरी इन्द्रियों के सुख को नही भोगता है, बल्कि सदैव अपनी ही आत्मा में रमण करके सुख का अनुभव करता है, ऎसा मनुष्य निरन्तर परब्रह्म परमात्मा में स्थित होकर असीम आनन्द को भोगता है। (२१)

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ (२२)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! इन्द्रियों और इन्द्रिय विषयों के स्पर्श से उत्पन्न, कभी तृप्त न होने वाले यह भोग, प्रारम्भ में सुख देने वाले होते है, और अन्त में निश्चित रूप से दुख-योनि के कारण होते है, इसी कारण तत्वज्ञानी कभी भी इन्द्रिय सुख नही भोगता है। (२२)

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ (२३)

भावार्थ : जो मनुष्य शरीर का अन्त होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही मनुष्य योगी है और वही इस संसार में सुखी रह सकता है। (२३)

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ (२४)

भावार्थ : जो मनुष्य अपनी आत्मा में ही सुख चाहने वाला होता है, और अपने मन को अपनी ही आत्मा में स्थिर रखने वाला होता है जो आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है, वही मनुष्य योगी है और वही ब्रह्म के साथ एक होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है। (२४)

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ (२५)

भावार्थ : जिनके सभी पाप और सभी प्रकार दुविधाएँ ब्रह्म का स्पर्श करके मिट गयीं हैं, जो समस्त प्राणियों के कल्याण में लगे रहते हैं वही ब्रह्म-ज्ञानी मनुष्य मन को आत्मा में स्थित करके परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं। (२५)

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥ (२६)

भावार्थ : सभी सांसारिक इच्छाओं और क्रोध से पूर्ण-रूप से मुक्त, स्वरूपसिद्ध, आत्मज्ञानी, आत्मसंयमी योगी को सभी ओर से प्राप्त परम-शान्ति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही होता है। (२६)


(भक्ति-युक्त ध्यान-योग का निरूपण)

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ (२७)

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ (२८)

भावार्थ : सभी इन्द्रिय-विषयों का चिन्तन बाहर ही त्याग कर और आँखों की दृष्टि को भोंओं के मध्य में केन्द्रित करके प्राण-वायु और अपान-वायु की गति नासिका के अन्दर और बाहर सम करके मन सहित इन्द्रियों और बुद्धि को वश में करके मोक्ष के लिये तत्पर इच्छा, भय और क्रोध से रहित हुआ योगी सदैव मुक्त ही रहता है (२७-२८)

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ (२९)

भावार्थ : ऎसा मुक्त पुरूष मुझे सभी यज्ञों और तपस्याओं को भोगने वाला, सभी लोकों और देवताओं का परमेश्वर तथा सम्पूर्ण जीवों पर उपकार करने वाला परम-दयालु एवं हितैषी जानकर परम-शान्ति को प्राप्त होता है। (२९)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसांख्ययोगो नाम पंचमोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्मसांख्य-योग नाम का पाँचवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

॥ श्रीगणेश भजनावली ॥


गणेशं गाणेशाः शिवमिति शैवाश्च विबुधाः ।
रविं सौरा विष्णुं प्रथमपुरुषं विष्णु भजकाः ॥

वदन्त्येकं शाक्त जगदुदयमूलां परशिवाम् ।
न जाने किन्तस्मै नम इति परब्रह्म सकलम् ॥

    जयगजानन
श्री गणेश भजनावलिः
जयतु जयतु श्री सिद्धिगणेश
जयतु जयतु श्री शक्तिगणेश
अक्षररूपा सिद्धिगणेश
अक्षयदायक सिद्धिगणेश
अर्कविनायक सिद्धिगणेश
अमराधीश्वर सिद्धिगणेश
आशापूरक सिद्धिगणेश
आर्यापोषित सिद्धिगणेश
इभमुखरञ्जित सिद्धिगणेश
इक्षुचापधर सिद्धिगणेश
ईश्वरतनया सिद्धिगणेश
ईप्सितदायक सिद्धिगणेश १०
उद्दण्ड विघ्नप सिद्धिगणेश
उमयापालित सिद्धिगणेश
उच्छिष्टगणप सिद्धिगणेश
उत्साहवर्धक सिद्धिगणेश
ऊष्मलवर्जित सिद्धिगणेश
ऊर्जितशासन सिद्धिगणेश
ऋणत्रयमोचक सिद्धिगणेश
ऋषिगणवन्दित सिद्धिगणेश
एकदन्तधर सिद्धिगणेश
एकधुरावह सिद्धिगणेश २०
ऐहिक फलद सिद्धिगणेश
ऐश्वर्यदायक सिद्धिगणेश
ओङ्काररूप सिद्धिगणेश
ओजोवर्धक सिद्धिगणेश
औन्नत्यरहित सिद्धिगणेश
औधार्यमूर्ते सिद्धिगणेश
अङ्कुषधारिन् सिद्धिगणेश
अम्बालालित सिद्धिगणेश
कमलभवस्तुत सिद्धिगणेश
करुणासागर सिद्धिगणेश ३०
कपर्धिगणप सिद्धिगणेश
कलिभयवारण सिद्धिगणेश
खड्गखेटधर सिद्धिगणेश
खलजनसूधन सिद्धिगणेश
खर्जूरप्रिय सिद्धिगणेश
गङ्कारवाच्य सिद्धिगणेश
गङ्गाधरसुत स्द्धिगणेश
गगनानन्दद सिद्धिगणेश
गणितज्ञानद सिद्धिगणेश
गरलपुरस्थित सिद्धिगणेश ४०
घटितार्थविधायक सिद्धिगणेश
घनदिव्योदर सिद्धिगणेश
चक्रधरार्चित सिद्धिगणेश
चर्वणलालस सिद्धिगणेश
छन्दोविग्रह सिद्धिगणेश
छलनिर्मूलन सिद्धिगणेश
छत्रालङ्क्रुत सिद्धिगणेश
जगन्मोहन सिद्धिगणेश
जगदुज्जीवन सिद्धिगणेश
जगदाधारक सिद्धिगणेश ५०
झम्पालयपद सिद्धिगणेश
झण झण नर्तक सिद्धिगणेश
टङ्कारितकार्मुक सिद्धिगणेश
टङ्क्रुति घोशण सिद्धिगणेश
ठवर्णवर्जित सिद्धिगणेश
डम्भविनाशन सिद्धिगणेश
डमरुगधरसुत सिद्धिगणेश
ढक्कारवहित सिद्धिगणेश
ढुण्डिविनायक सिद्धिगणेश
णवर्णरञ्जित सिद्धिगणेश ६०
तरुणेन्दुप्रिय सिद्धिगणेश
तनुधनरक्षक सिद्धिगणेश
थळथळलोचन सिद्धिगणेश
थकथक नर्तन सिद्धिगणेश
नवदूर्वाप्रिय सिद्धिगणेश
नवनीतविलेपन सिद्धिगणेश
पञ्चास्यगणप सिद्धिगणेश
पशुपाश विमोचक सिद्धिगणेश
प्रणतज्ञानद सिद्धिगणेश
फलभक्षणपटु सिद्धिगणेश ७०
फणिपति भूशण सिद्धिगणेश
बदरीफलहित सिद्धिगणेश
बकुळ सुमार्चित सिद्धिगणेश
भवभयनाशक सिद्धिगणेश
भक्तोद्धारक सिद्धिगणेश
मनोरथ सिद्धिद सिद्धिगणेश
महिमान्वितवर सिद्धिगणेश
मनोन्मनीसुत सिद्धिगणेश
यज्ञफलप्रद सिद्धिगणेश
यमसुतवन्दित सिद्धिगणेश ८०
रत्नगर्भवर सिद्धिगणेश
रघुरामर्चित सिद्धिगणेश
रमयासंस्तुत सिद्धिगणेश
रजनीशविशापद सिद्धिगणेश
ललना पूजित सिद्धिगणेश
ललितानन्दद सिद्धिगणेश
लक्ष्म्यालिङ्गित सिद्धिगणेश
वरदा भयकर सिद्धिगणेश
वर मूषकवाहन सिद्धिगणेश
शमीदळार्चित सिद्धिगणेश ९०
शम दम कारण सिद्धिगणेश
शशिधरलालित सिद्धिगणेश
षण्मुख सोदर सिद्धिगणेश
षट्कोणार्चित सिद्धिगणेश
षड्गुणमण्डित सिद्धिगणेश
षडूर्मिभञ्जक सिद्धिगणेश
सप्तदशाक्षर सिद्धिगणेश
सर्वाग्रपूज्य सिद्धिगणेश
सङ्कश्टहरण सिद्धिगणेश
सन्तानप्रद सिद्धिगणेश १००
सज्जनरक्षक सिद्धिगणेश
सकलेष्टार्थद सिद्धिगणेश
सङ्गीतप्रिय सिद्धिगणेश
हरिद्रागणप सिद्धिगणेश
हरिहरपूजित सिद्धिगणेश
हर्षप्रदायक सिद्धिगणेश
क्षतदन्तायुध सिद्धिगणेश
क्षमयापालय सिद्धिगणेश १०८
जयतु जयतु श्री सिद्धिगणेश
जयतु जयतु श्री शक्तिगणेश
॥ श्री सिद्धि एवं शक्ति गणेश चरणारविन्दार्पणमस्तु ॥

॥ शत्रुसंहारकमेकदन्तस्तोत्रम् ॥



श्रीगणेशाय नमः ।
सनत्कुमार उवाच ।
श्रृणु शम्भ्वादयो देवा मदासुरविनाशने ।
उपायं कथयिष्यामि तत्कुरुध्वं मुनीश्वराः ॥ १॥

गणेशं पूजयध्वं वै यूयं सर्वे समावृताः ।
स बाह्यान्तरसंस्थो वै हनिष्यति मदासुरम् ॥ २॥

सनत्कुमारवाक्यं तच्छ्रुत्वा देवर्षिसत्तमाः ।
ऊचुस्तं प्रणिपत्यादौ भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥ ३॥

देवर्षय ऊचुः ।
केनोपायेन देवेशं गणेशं मुनिसत्तमम् ।
पूजयामो विशेषेण तं ब्रवीहि यथातथम् ॥ ४॥

एवं पृष्टो महायोगी देवैश्च मुनिभिः सह ।
उवाचाराधनं तेभ्यो गाणपत्यो महायशाः ॥ ५॥

एकाक्षरेण तं देवं हृदिस्थं गणनायकम् ।
विधिना पूजयध्वं च तुष्टस्तेन भविष्यति ॥ ६॥

ध्यानं तस्य प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं सुरसत्तमाः ।
यूयं तं तादृशं ध्यात्वा तोषयध्वं विधानतः ॥ ७॥

एकदन्तं चतुर्बाहुं गजवक्त्रं महोदरम् ।
सिद्धिबुद्धिसमायुक्तं मूषकारूढमेव च ॥ ८॥

नाभिशेषं सपाशं वै परशुं कमलं शुभम् ।
अभयं सन्दधन्तं च प्रसन्नवदनाम्बुजम् ॥ ९॥

भक्तेभ्यो वरदं नित्यमभक्तानां निषूदनम् ।
एतादृशं हृदि ध्यात्वा सेवध्वमेकदन्तकम् ॥ १०॥

सर्वेषां हृदि संस्थोऽयं बुद्धिप्रेरकभावतः ।
स्वयं बुद्धिपतिः साक्षादात्मा च सर्वदेहिनाम् ॥ ११॥

एकशब्दात्मिका माया देहरूपा विलासिनी ।
दन्तः सत्तात्मकः प्रोक्तः शब्दस्तत्र न संशयः ॥ १२॥

मायाया धारकोऽयं वै सत्तमात्रेण संस्थितः ।
एकदन्तो गणेशो वै कथ्यते वेदवादिभिः ॥ १३॥

सर्वसत्ताधरं पूर्णमेकदन्तं गजाननम् ।
सेवध्वं भक्तिभावेन भविष्यति सदा सुखम् ॥ १४॥

एवमुक्‍त्वा ययौ योगी स सनत्कुमार आदरात् ।
जय हेरम्बमन्‍त्रं वै समुच्चरन् मुखेन सः ॥ १५॥

ततो देवगणाः सर्वे मनुयस्तपसि स्थिताः ।
एकाक्षरविधानेन तोषयामासुरादरात् ॥ १६॥

पत्रभक्षा निराहारा वायुभक्षा जलाशिनः ।
कन्दमूलफलाहाराः केचित्केचिद्बभूविरे ॥ १७॥

संस्थिता ध्याननिष्ठा वै जपहोमपरायणाः ।
नानातपःप्रभावेण तोषयन् गणनायकम् ॥ १८॥

गतवर्षशतेषु वै सन्तुष्ट एकदन्तकः ।
आययौ तान्वरान्दातुं ध्यातस्तैर्यादृशस्तथा ॥ १९॥

जगाद स तपोयुक्तान् मुनीन्देवन्गजाननः ।
वरं वृणुत तुष्टोऽहं दास्यामि ब्राह्मणामराः ॥ २०॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा हृष्टा देवर्षयोऽभवन् ।
उन्मील्य लोचने देवमपश्यन्समीपस्थितम् ॥ २१॥

दृष्ट्वा मूषकसंस्थं तं प्रणेमुस्ते गजाननम् ।
मुनयो देवदेवेन्द्रा पुपूजुर्भक्तिसंयुताः ॥ २२॥

पूजयित्वा यथान्यायं प्रणम्य करसम्पुटाः ।
तुष्टुवुरेकदन्तं तं भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥ २३॥

देवर्षय ऊचुः ।
नमस्ते गजवक्‍त्राय गणेशाय नमो नमः ।
अनन्तानन्दभोक्‍त्रे वै ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे ॥ २४॥

आदिमध्यान्तहीनाय चराचरमयाय ते ।
अनन्तोदरसंस्थाय नाभिशेषाय ते नमः ॥ २५॥

कर्त्रे पात्रे च संहर्त्रे त्रिगुणानामधीश्वर ।
सर्वसत्ताधरायैव निर्गुणाय नमो नमः ॥ २६॥

सिद्धिबुद्धिपते तुभ्यं सिद्धिबुद्धिप्रदाय च ।
ब्रह्मभूताय देवेश सगुणाय नमो नमः ॥ २७॥

परशुधारिणे तुभ्यं कमलहस्तशोभिने ।
पाशाभयधरायैव महोदराय ते नमः ॥ २८॥

मूषकारूढदेवाय मूषकध्वजिने नमः ।
आदिपूज्याय सर्वाय सर्वपूज्याय ते नमः ॥ २९॥

सगुणात्मककायाय निर्गुणमस्तकाय ते ।
तयोदभेदरूपेण चैकदन्तय ते नमः ॥ ३०॥

देवान्ताऽगोचरायैव वेदान्तलभ्यकाय ते ।
योगाधीशाय वै तुभ्यं ब्रह्माधीशाय ते नमः ॥ ३१॥

अपारगुणधामायानन्तमायाप्रचरिणे ।
नानावतारभेदाय शान्तिदाय नमो नमः ॥ ३२॥

वयं धन्या वयं धन्या यैर्दृष्टो गणनायकः ।
ब्रह्मभूतमयः साक्षात्प्रत्यक्षं पुरतः स्थितः ॥ ३३॥

एवं स्तुत्वा प्रहर्षेण ननृतुर्भक्तिसंयुताः ।
साश्रुनेत्रान्सरोमाञ्चान्दृष्ट्वा तान्ढुण्ढिरब्रवीत् ॥ ३४॥

एकदन्त उवाच ।
वरं वृणुत देवेशा मनुयश्च यथेप्सितम् ।
दास्यामि तं न सन्देहो यद्यपि दुर्लभं भवेत् ॥ ३५॥

भवत्कृतं मदीयं तत् स्तोत्रं सर्वार्थदं भवेत् ।
पठते श्रुण्वते देवा नानासिद्धिप्रदं द्विजाः ॥ ३६॥

शत्रुनाशकरं चैव सुखानन्दप्रदायकम् ।
पुत्रपौत्रादिकं सर्वं लभते पाठतो नरः ॥ ३७॥

गृत्समद उवाच ।
एवं तस्य वचः श्रुत्वा हर्षयुक्ताः सुरर्षयः ।
ऊचुस्तमेकदन्तं ते प्रणम्य भक्तिभावतः ॥ ३८॥

सुरर्षय ऊचुः ।
यदि तुष्टोऽसि सर्वेश एकदन्त महाप्रभो ।
यदि देयो वरो नश्चेज्जहि दुष्टं मदासुरम् ॥ ३९॥

इति श्रीमुद्गलपुराणान्तर्गतं सनकादिकृतमेकदन्तस्तोत्रं समाप्तम् ।