6/17/16

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता - कर्मसंन्यासयोग अध्याय ५




श्री भगवान कहते हैं: हे देवी! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्र देश में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है, उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था, वह वेदपाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वदा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल बजाते हुए उसने नाच-गान में मन लगाया, गीत, नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली और उसी से उसका राज भवन में भी प्रवेश हो गया।

वह राजा के साथ रहने लगा, स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था, धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से उच्छ्रंखल होकर वह एकान्त में राजा से दूसरों के दोष बतलाने लगा, पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा, वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ विहार करने की इच्छा से सदा उन्हीं की खोज में घूमा करती थी, उसने पति को अपने मार्ग का कण्टक समझकर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया, इस प्रकार प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक पहुँचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।

अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर शरीर को त्याग कर घोर नरक भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई, एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से इधर उधर फुदक रही थी, इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्वजन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नखों से फाड़ डाला, शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी, गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा, इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलियों ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया, उसकी पूर्वजन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी, फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया।

यमराज के दूत उन दोनों को यमलोक में ले गये, वहाँ अपने पूर्वकृत पाप कर्म को याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे, तदनन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात् खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है, तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी, यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगेः "भगवन ! हम दोनों ने पूर्वजन्म में अत्यन्त घृणित पाप का संचय किया है, फिर हमें मनोवाञ्छित लोकों में भेजने का क्या कारण है?"

यमराज ने कहा: गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्म-ज्ञानी रहते थे, वे एकान्तवासी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे, प्रतिदिन गीता के पाँचवें अध्याय का जप करना उनका सदा नियम था, पाँचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्ध चित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था, गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्ही महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये, अतः अब तुम दोनों मनोवाञ्छित लोकों को जाओ, क्योंकि गीता के पाँचवें अध्याय के माहात्म्य से तुम दोनों शुद्ध हो गये हो।

श्री भगवान कहते हैं: सबके प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

(सांख्य-योग और कर्म-योग के भेद)

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ॥ (१)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! कभी आप सन्यास-माध्यम (सर्वस्व का न्यास=ज्ञान योग)से कर्म करने की और कभी निष्काम माध्यम से कर्म करने (निष्काम कर्म-योग) की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में से एक जो आपके द्वारा निश्चित किया हुआ हो और जो परम-कल्याणकारी हो उसे मेरे लिये कहिए। (१)

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ (२)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - सन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्य-योग) और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्म-योग), ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाला है परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ है। (२)

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ (३)

भावार्थ : हे महाबाहु! जो मनुष्य न तो किसी से घृणा करता है और न ही किसी की इच्छा करता है, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि ऎसा मनुष्य राग-द्वेष आदि सभी द्वन्द्धों को त्याग कर सुख-पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। (३)

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥ (४)

भावार्थ : अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है। (४)

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ (५)

भावार्थ : जो ज्ञान-योगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही निष्काम कर्म-योगियों को भी प्राप्त होता है, इसलिए जो मनुष्य सांख्य-योग और निष्काम कर्म-योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही वास्तविक सत्य को देख पाता है। (५)

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ (६)

भावार्थ : हे महाबाहु! निष्काम कर्म-योग (भक्ति-योग) के आचरण के बिना (संन्यास) सर्वस्व का त्याग दुख का कारण होता है और भगवान के किसी भी एक स्वरूप को मन में धारण करने वाला "निष्काम कर्म-योगी" परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र प्राप्त हो जाता है। (६)


(कर्म-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ (७)

भावार्थ : "कर्म-योगी" इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है और सभी प्राणीयों की आत्मा का मूल-स्रोत परमात्मा में निष्काम भाव से मन को स्थित करके कर्म करता हुआ भी कभी कर्म से लिप्त नहीं होता है। (७)

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥ (८)

भावार्थ : "कर्म-योगी" परमतत्व-परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ। (८)

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥ (९)

भावार्थ : "कर्म-योगी" बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ भी, यही सोचता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हो रही हैं, ऎसी धारणा वाला होता है। (९)

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ (१०)

भावार्थ : "कर्म-योगी" सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है। (१०)

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ (११)

भावार्थ : "कर्म-योगी" निष्काम भाव से शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा केवल आत्मा की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं। (११)

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)

भावार्थ : "कर्म-योगी" सभी कर्म के फलों का त्याग करके परम-शान्ति को प्राप्त होता है और जो योग में स्थित नही वह कर्म-फ़ल को भोगने की इच्छा के कारण कर्म-फ़ल में आसक्त होकर बँध जाता है। (१२)


(सांख्य-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा मन से समस्त कर्मों का परित्याग करके, वह न तो कुछ करता है और न ही कुछ करवाता है तब वह नौ-द्वारों वाले नगर (स्थूल-शरीर) में आनंद-पूर्वक आत्म-स्वरूप में स्थित रहता है। (१३)

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (१४)

भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा देह का कर्ता न होने के कारण इस लोक में उसके द्वारा न तो कर्म उत्पन्न होते हैं और न ही कर्म-फलों से कोई सम्बन्ध रहता है बल्कि यह सब प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किये जाते है। (१४)

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ (१५)

भावार्थ : शरीर में स्थित परमात्मा न तो किसी के पाप-कर्म को और न ही किसी के पुण्य-कर्म को ग्रहण करता है किन्तु जीवात्मा मोह से ग्रसित होने के कारण परमात्मा जीव के वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है। (१५)

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ (१६)

भावार्थ : किन्तु जब मनुष्य का अज्ञान तत्वज्ञान (परमात्मा का ज्ञान) द्वारा नष्ट हो जाता है, तब उसके ज्ञान के दिव्य प्रकाश से उसी प्रकार परमतत्व-परमात्मा प्रकट हो जाता है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से संसार की सभी वस्तुएँ प्रकट हो जाती है। (१६)

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ (१७)

भावार्थ : जब मनुष्य बुद्धि और मन से परमात्मा की शरण-ग्रहण करके परमात्मा के ही स्वरूप में पूर्ण श्रद्धा-भाव से स्थित होता है तब वह मनुष्य तत्वज्ञान के द्वारा सभी पापों से शुद्ध होकर पुनर्जन्म को प्राप्त न होकर मुक्ति को प्राप्त होता हैं। (१७)

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ (१८)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य विद्वान ब्राह्मण और विनम्र साधु को तथा गाय, हाथी, कुत्ता और नर-भक्षी को एक समान दृष्टि से देखने वाला होता हैं। (१८)

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ (१९)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य का मन सम-भाव में स्थित रहता है, उसके द्वारा जन्म-मृत्यु के बन्धन रूपी संसार जीत लिया जाता है क्योंकि वह ब्रह्म के समान निर्दोष होता है और सदा परमात्मा में ही स्थित रहता हैं। (१९)

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ (२०)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य न तो कभी किसी भी प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित है और न ही अप्रिय वस्तु को पाकर विचलित होता है, ऎसा स्थिर बुद्धि, मोह-रहित, ब्रह्म को जानने वाला सदा परमात्मा में ही स्थित रहता है। (२०)

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ (२१)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य बाहरी इन्द्रियों के सुख को नही भोगता है, बल्कि सदैव अपनी ही आत्मा में रमण करके सुख का अनुभव करता है, ऎसा मनुष्य निरन्तर परब्रह्म परमात्मा में स्थित होकर असीम आनन्द को भोगता है। (२१)

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ (२२)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! इन्द्रियों और इन्द्रिय विषयों के स्पर्श से उत्पन्न, कभी तृप्त न होने वाले यह भोग, प्रारम्भ में सुख देने वाले होते है, और अन्त में निश्चित रूप से दुख-योनि के कारण होते है, इसी कारण तत्वज्ञानी कभी भी इन्द्रिय सुख नही भोगता है। (२२)

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ (२३)

भावार्थ : जो मनुष्य शरीर का अन्त होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही मनुष्य योगी है और वही इस संसार में सुखी रह सकता है। (२३)

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ (२४)

भावार्थ : जो मनुष्य अपनी आत्मा में ही सुख चाहने वाला होता है, और अपने मन को अपनी ही आत्मा में स्थिर रखने वाला होता है जो आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है, वही मनुष्य योगी है और वही ब्रह्म के साथ एक होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है। (२४)

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ (२५)

भावार्थ : जिनके सभी पाप और सभी प्रकार दुविधाएँ ब्रह्म का स्पर्श करके मिट गयीं हैं, जो समस्त प्राणियों के कल्याण में लगे रहते हैं वही ब्रह्म-ज्ञानी मनुष्य मन को आत्मा में स्थित करके परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं। (२५)

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥ (२६)

भावार्थ : सभी सांसारिक इच्छाओं और क्रोध से पूर्ण-रूप से मुक्त, स्वरूपसिद्ध, आत्मज्ञानी, आत्मसंयमी योगी को सभी ओर से प्राप्त परम-शान्ति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही होता है। (२६)


(भक्ति-युक्त ध्यान-योग का निरूपण)

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ (२७)

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ (२८)

भावार्थ : सभी इन्द्रिय-विषयों का चिन्तन बाहर ही त्याग कर और आँखों की दृष्टि को भोंओं के मध्य में केन्द्रित करके प्राण-वायु और अपान-वायु की गति नासिका के अन्दर और बाहर सम करके मन सहित इन्द्रियों और बुद्धि को वश में करके मोक्ष के लिये तत्पर इच्छा, भय और क्रोध से रहित हुआ योगी सदैव मुक्त ही रहता है (२७-२८)

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ (२९)

भावार्थ : ऎसा मुक्त पुरूष मुझे सभी यज्ञों और तपस्याओं को भोगने वाला, सभी लोकों और देवताओं का परमेश्वर तथा सम्पूर्ण जीवों पर उपकार करने वाला परम-दयालु एवं हितैषी जानकर परम-शान्ति को प्राप्त होता है। (२९)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसांख्ययोगो नाम पंचमोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्मसांख्य-योग नाम का पाँचवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

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