पाठ-2
वेद की मन्त्रा-संहिताएं
वैदिक वा³मय में प्राचीनता और महत्ता की दृषिट से सर्वप्रथम वेद की संहिताओं को लिया जाता है। चारों वेदों की अपनी अपनी संहिताएं हैं। माना जाता है कि प्रारम्भ में सभी वेद-मन्त्रा एक साथ थे, अनन्तर वेदव्यास ने एकस्थ वेद को अèययन की दृषिट से कठिन समझ कर उन मन्त्राों को अलग-अलग संहिताओं में संकलित कर दिया।
यास्क ने 'मननात मन्त्रा: कहकर मन्त्रा शब्द की व्युत्पति दी है। तदनुसार जिनमें मनन होता है वह 'मन्त्रा कहलाता है। जिन के द्वारा यज्ञ-यागों का अनुष्ठान किया जाता है और जिनमें देवताओं की स्तुतियां होती हैं, उन्हें 'मन्त्रा नाम से पुकारते हैें। मन्त्रा तीन प्रकार के हैं-ऋक, यजुष और सामन। ये क्रमश: ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्राों के नाम हैं। इन मन्त्राों के समूह को प्राय: 'सूक्त कहते हैं। संहिता शब्द का अर्थ है-संकलन या संग्रह। कहा ही जाता है-'संहन्यन्ते एकत्राीक्रियन्ते मन्त्राा: सूक्तानि वा अस्यां सा संहिता, अर्थात जिसमें सूक्तों या मन्त्राों का संग्रह या एकत्राीकरण किया गया हो, वह ग्रन्थ संहिता है। इस नियम से चारों वेदों के मन्त्रा की अपनी अपनी संहिताएं उपलब्èा होती हैं; उनको ही उस वेद की मन्त्रा-संहिता कहते हैं। यथा, ऋग्वेद की ऋग्वेदसंहिता, यजुर्वेद की यजुर्वेदसंहिता (दो भाग), सामवेद की सामवेदसंहिता और अथर्ववेद की अथर्ववेदसंहिता। इस पाठ में चारों वेदों की पांच संहिताओं के स्वरूप और महत्त्व का विवेचन किया जा रहा है।
(1) ऋग्वेद-संहिता
चारों वेदों में प्रथम स्थान ऋग्वेद को प्राप्त है। ऋग्वेद को विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है। वैदिक वा³मय में ऋग्वेद को परम पूजनीय माना जाता है और वसन्त पूजा आदि के अवसर पर सर्वप्रथम वेदपाठ ऋग्वेद से ही प्रारम्भ किया जाता है। पुरुषसूक्त में आदि पुरुष से उत्पन्न वेदमन्त्राों में सर्वप्रथम 'ऋक को गिनाया गया है।
1. ऋक का अर्थ - ऋग्वेद की संहिता को 'ऋकसंहिता कहते हैं। वस्तुत: 'ऋक का अर्थ है-'स्तुतिपरक मन्त्रा और 'संहिता का अभिप्राय संकलन से है। अत: ऋचाओं के संकलन का नाम 'ऋकसंहिता है। ऋक की परिभाषा दी जाती है-'ऋच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति 'ऋक अर्थात जिससे देवताओं की स्तुति हो उसे 'ऋक कहते हैें। एक दूसरी व्याख्या के अनुसार छन्दों में बंèाी रचना को 'ऋक नाम दिया जाता है। ब्राह्राण ग्रन्थों में ऋक को ब्रह्रा, वाक, प्राण, अमृत आदि कहा गया है जिसका तात्पर्य यही है कि ऋग्वेद के मन्त्रा ब्रह्रा की प्रापित कराने वाले, वाक की प्रापित कराने वाले, प्राण या तेज की प्रापित कराने वाले और अमरत्व के साèान हंै। सामान्य रूप से इससे ऋग्वेद के मन्त्राों की महिमा का ग्रहण किया जाना चाहिए।
2. ऋग्वेद की शाखाएं - पत×जलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की कदाचित 21 शाखाएं थीं। इनमें से 'चरणव्यूह नामक ग्रन्थ में उल्लखित ये पांच शाखाएं प्रमुख मानी जाती हैं-शाकल, वाष्कल, आश्वलायनी, शांखायनी और माण्डूकायनी। सम्प्रति ऋग्वेद की एक शाकल शाखा की संहिता ही प्राप्त होती है। यह संहिता कर्इ दृषिटयों से अत्यèािक महत्त्वपूर्ण है।
3. ऋग्वेद की संहिता का महत्त्व - सम्पूर्ण वैदिक वा³मय का प्राचीनतम ग्रन्थ होने के कारण इस (शाकल) संहिता को विश्वसाहित्य का प्रथम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है। चारों वेदों की संहिताओं की तुलना में यह सबसे बड़ी संहिता है। एक विशालकाय वैदिक ग्रन्थ के रूप में यह अदभुत और विविèा ज्ञान का स्रोत है। भाव, भाषा और छन्द की दृषिट से भी यह अत्यन्त प्राचीन है। इसमें अèािकांश देव इन्द्र, विष्णु, मरुत आदि प्राकृतिक तत्त्वों के प्रतिनिèाि हैं। ये पंचतत्त्वों-अगिन, वायु, आदि तथा मेघ, विधुत, सूर्य आदि का प्रतिनिèाित्व करते हैं। सभी वेदों और ब्राह्राण ग्रन्थों में ऋग्वेद या इसकी संहिता का ही नाम सर्वप्रथम गिनाया जाता है। फिर अनेक विषयों की व्यापक चर्चा करने के कारण इस संहिता का वण्र्यविषयपरक महत्त्व भी स्वीकार किया जाता है।
4. ऋग्वेद संहिता का विभाजन - ऋग्वेद की संहिता ऋचाओं का संग्रह है। ऋकसंहिता का विभाजन दो प्रकार से किया जाता है-(1) अष्टक-क्रम और (2) मण्डल-क्रम। अष्टक क्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण संहिता आठ अष्टकों में विभाजित है और प्रत्येक अष्टक में आठ अèयाय हैे। अèयाय वगो± में विभाजित हैं और वर्ग के अन्तर्गत ऋचाएं हैं। कुल अèयायों की संख्या 64 और वगो± की संख्या 2006 हैें।
मण्डल-क्रम में सम्पूर्ण संहिता में दस मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डल में कर्इ अनुवाक, प्रत्येक अनुवाक में कर्इ सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कर्इ मन्त्रा हैं। तदनुसार ऋग्वेद-संहिता में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10552 मन्त्रा हैें।
इस प्रकार ऋग्वेद की मन्त्रा-संहिता के विभाजन की एक सुन्दर और निशिचत व्यवस्था प्राप्त होती है।
5. ऋग्वेद-संहिता के ऋषि - ऋग्वेद-संहिता के मन्त्राद्रष्टा ़ऋषियों पर यदि èयान दिया जाए, तो हम पाते हैं कि दूसरे से सातवें मण्डल के अन्तर्गत समाविष्ट मन्त्रा किसी एक ऋषि के द्वारा ही साक्षात्कार किये गये हैें। इसीलिए ये मण्डल वंशमंडल कहलाते हैं। इन मण्डलों को दूसरे मण्डलों की तुलना में प्राचीन माना जाता है। यधपि कर्इ विद्वान इस मत से असहमत भी हैं। आठवें मण्डल में कण्व, भृगु आदि कुछ परिवारों के मन्त्रा संकलित हैं। पहले और दसवें मण्डल में सूक्त-संख्या समान हैं। दोनों में 191 सूक्त ही हैं। इन दोनों मण्डलों की उल्लेखयोग्य विशेषता यह भी है कि इसमें अनेक ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किये गये मन्त्राों का संकलन किया गया है। पहले और दसवें मण्डल में विभिन्न विषयों के सूक्त हैं। प्राय: विद्वान इन दोनों मण्डलों को अपेक्षाकृत अर्वाचीन मानते हैं। नवां मण्डल भी कुछ विशेष महत्त्व लिये हुए है। इसमें सोम देवता के समस्त मन्त्राों को संकलित किया गया है। इसीलिए इसका दूसरा प्रचलित नाम है-पवमान मण्डल।
सुविèाा के लिए ऋग्वेद की संहिता के मण्डल, सूक्तसंख्या और ऋषिनामों का विवरण एक तालिका में दिया जा रहा है-
मण्डल सूक्त संख्या ऋषि नाम
1. 191 मèाुच्छन्दा:, मेधातिथि, दीर्घतमा:, अगस्त्य, गोतम, पराशर आदि।
2. 43 गृत्समद एवं उनके वंशज
3. 62 विश्वामित्रा एवं उनके वंशज
4. 58 वामदेव एवं उनके वंशज
5. 87 अत्रि एवं उनके वंशज
6. 75 भरद्वाज एवं उनके वंशज
7. 104 वशिष्ठ एवं उनके वंशज
8. 103 कण्व, भृगु, अंगिरा एवं उनके वंशज
9. 114 ऋषिगण, विषय-पवमान सोम
10. 191 त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी इन्द्राणी, शची आदि।
इन मन्त्राों के द्रष्टा-ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्रा, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, भृगु और अंगिरा प्रमुख हैं। कर्इ वैदिक नारियां भी मन्त्राों की द्रष्टा रही हैें। प्रमुख ऋषिकाओं के रूप में वाक आम्भृणी, सूर्या सावित्राी, सार्पराज्ञी, यमी वैवस्वती, उर्वशी, लोपामुद्रा, घोषा आदि के नाम उल्लेखनीय हैें।
6.ऋग्वेद संहिता के छन्द - इस संहिता के कुल 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें भी प्रमुख छन्द सात हैं। ये हैं-
1. गायत्राी - 24 अक्षर
2. उषिणक - 28 अक्षर
3. अनुष्टप - 32 अक्षर
4. बृहती - 36 अक्षर
5. प³कित - 40 अक्षर
6. त्रिष्दुप - 44 अक्षर
7. जगती - 48 अक्षर
इनमें भी इन चार छन्दों के मन्त्राों की संख्या इस संहिता में सबसे अèािक पार्इ जाती है-त्रिष्टुप, गायत्राी, जगती और अनुष्टुप।
7. ऋग्वेद संहिता का वण्र्य-विषय - ऋग्वेद में आयो± की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था तथा संस्थाओं का विवरण है। इसमें उनके दार्शनिक, आèयातिमक कलात्मक तथा वैज्ञानिक विचारों का समावेश भी है। वेदकालीन ऋषियों के जीवन में देवताओं और देव-आराèाना को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद का प्रत्येक मन्त्रा किसी न किसी देवता से सम्बद्ध है। यथार्थ में देवता से तात्पर्य वण्र्य विषय का है। तभी छुरा और ऊखल जैसी वस्तुएं भी देवता है। अक्ष और कृषि भी देवता हैं।
ऋग्वेद की संहिता में देवस्तुति की प्रèाानता है। अगिन, इन्द्र, मरुत, उषा, सोम, अशिवनौ आदि नाना देवताओं की कर्इ-कर्इ सूक्तों में स्तुतियां की गर्इ हैं। सबसे अèािक सूक्त इन्द्र देवता की स्तुति में कहे गये हैं और उसके बाद संख्या की दृषिट से अगिन के सूक्तों का स्थान है। अत: इन्द्र और अगिन वैदिक आयो± के प्रèाान देवता प्रतीत होते हैं। कुछ सूक्तों में मित्राावरुणा, इन्द्रवायू, धावापृथिवी जैसे युगल देवताओं की स्तुतियां हैं। अनेक देवगण जैसे आदित्य, मरुत, रुद्र, विश्वेदेवा आदि भी मन्त्राों में स्तवनीय हैं। देवियों में उषा और अदिति का स्थान अग्रगण्य है।
ऋकसंहिता में देवस्तुतियों के अतिरिक्त कुछ दूसरे विषयों पर भी सूक्त हैं, जैसे जुआरी की दुर्दशा का चित्राण करने वाला 'अक्षसूक्त, वाणी और ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला 'ज्ञानसूक्त, यम और यमी के संवाद को प्रस्तुत करने वाला 'यमयमी-संवादसूक्त, पुरूरवा और उर्वशी की बातचीत पर प्रकाश डालने वाला 'पुरूरवाउर्वशी-संवादसूक्त आदि।
विषय की गम्भीरता को दर्शाने वाले सूक्तों में दार्शनिक सूक्तों को गिना जा सकता है, जैसे पुरुषसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, नासदीयसूक्त आदि। इनमें सृषिट-उत्पत्ति और उसके मूलकारण को लेकर गूढ़ दार्शनिक विवेचन किया गया है। औषèािसूक्त में नाना प्रकार की औषèाियों के रूप, रंग और प्रभाव का विवरण है।
8. ऋग्वेद संहिता के कुछ प्रमुख सूक्त - ऋग्वेद-संहिता के सूक्तों को वण्र्य विषय और शैली के आधार पर प्राय: इस प्रकार विभाजित किया जाता है-
(1) देवस्तुतिपरकसूक्त
(2) दार्शनिक सूक्त
(3) लौकिक सूक्त
(4) संवाद सूक्त
(5) आख्यान सूक्त आदि।
कुछ प्रमुख सूक्त, जो अत्यèािक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण हैं, उनका संक्षिप्त परिचय इस संहिता के व्यापक विषय पर प्रकाश डालता है।
(1) पुरुष सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल का 90 संख्यक सूक्त 'पुरुषसूक्त कहलाता है क्योंकि इसका देवता पुरुष है। इसमें पुरुष के विराट रूप का वर्णन है और उससे होने वाली सृषिट की विस्तार से चर्चा की गयी है। इस पुरुष को हजारों सिर, हजारों पैरों आदि से युक्त बताया गया है। इसी से विश्व के विविèा अंग और चारों वेदों की उत्पत्ति कही गयी है। सर्वप्रथम चार वणो± के नामों का उल्लेख ऋग्वेद के इसी सूक्त में मिलता है। यह सूक्त उदात्तभावना, दार्शनिक विचार और रूपकात्मक शैली के लिए अति प्रसिद्ध है।
(2) नासदीय सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 129वें सूक्त को 'नासदीय सूक्त या 'भाववृत्तम सूक्त कहते हैं। इसमें सृषिट की उत्पत्ति की पूर्व अवस्था का चित्राण है और यह खोजने का यत्न किया गया है कि जब कुछ नहीं था तब क्या था। तब न सत था, न असत, न रात्रि थी, न दिन था; बस तमस से घिरा हुआ तमस था। फिर सर्वप्रथम उस एक तत्त्व में 'काम उत्पन्न हुआ और उसका यही संकल्प सृषिट के नाना रूपों में अभिव्यक्त हो गया। पर अन्त में सन्देह किया गया है कि वह परम व्योम में बैठने वाला एक अèयक्ष भी इस सबको जानता है या नहीं। अथवा यदि जानता है तो वही जानता है और दूसरा कौन जानेगा?
(3) हिरण्यगर्भ सूक्त - इस संहिता के दशम मण्डल के 121वें सूक्त को 'हिरण्यगर्भ सूक्त कहते हैं क्योंकि इसका देवता हिरण्यगर्भ है। नौ मन्त्राों के इस सूक्त में प्रत्येक मन्त्रा में 'कस्मै देवाय हविषा विèोम कहकर यह बात दोहरार्इ गयी है कि ऐसे महनीय हिरण्यगर्भ को छोड़कर हम किस अन्य देव की आराèाना करेंं? हमारे लिए तो यह 'क संज्ञक प्रजापति ही सर्वाèािक पूजनीय है। इस हिरण्यगर्भ का स्वरूप, महिमा और उससे होने वाली उत्पत्ति का विवरण इस सूक्त में बड़े सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। हिरण्यगर्भ ही सृषिट का नियामक और èार्ता है।
(4) संज्ञान सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 191वें संख्यक सूक्त को संज्ञान सूक्त कहते हैं। इसमें कुल 8 मन्त्रा हैं, पर ऋग्वेद का यह अनितम मन्त्रा अपने उदात्त विचारों और सांमनस्य के सन्देश के कारण मानवीय समानता का आदर्श माना जाता है। हम मिलकर चले, मिलकर बोलें, हमारे हृदयों में समानता और एकता हो-यह कामना किसी भी समाज या संगठन के लिए एकता का सूत्रा है।
(5) अक्ष सूक्त - ऋग्वेद के दशम मण्डल के 34वें सूक्त को 'अक्ष सूक्त कहते हैं। यह एक लौकिक सूक्त है। इसमें कुल 14 मन्त्रा हैं। अक्ष क्रीड़ा की निन्दा करना और परिश्रम का उपदेश देना-इस सूक्त का सार है। एक निराश जुआरी की दुर्दशा का मार्मिक चित्राण इसमें दिया गया है जो घर और पत्नी की दुर्दशा को समझकर भी जुए के वशीभूत होकर अपने को उसके आकर्षण से रोक नहीं पाता है और फिर सबका अपमान सहता है और अपना सर्वनाश कर लेता है। अन्त में, सविता देवता से उसे नित्य परिश्रम करने और कृषि द्वारा जीविकोपार्जन करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
(6) विवाह सूक्त - ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के 85वें सूक्त को विवाहसूक्त नाम से जाना जाता है। अथर्ववेद में भी विवाह के दो सूक्त हैं। इस सूक्त में सूर्य की पुत्राी 'सूर्या तथा सोम के विवाह का वर्णन है। अशिवनी कुमार इस विवाह में सहयोगी का कार्य करते हैं। यहां स्त्राी के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन है। उसे सास-ससुर की सेवा करने का उपदेश दिया गया है। परिवार का हित करना उसका कर्तव्य है। साथ ही स्त्राी को गृहस्वामिनी, गृहपत्नी और साम्राज्ञी कहा गया है। अत: स्त्राी को परिवार में आदरणीय बताया गया है।
(7) कुछ मुख्य आख्यानसूक्त - ऋग्वेदसंहिता में कर्इ सूक्तों में कथा जैसी शैली मिलती है और उपदेश या रोचकता उसका उíेश्य प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख सूक्त जिनमें आख्यान की प्रतीति होती है इस प्रकार हैं-श्वावाश्र सूक्त (5ध्61), मण्डूक सूक्त (7ध्103), इन्द्रवृत्रा सूक्त (1ध्80ए 2ध्12), विष्णु का त्रिविक्रम (1ध्154); सोम सूर्या विवाह (10ध्85)। वैदिक आख्यानों के गूढ़ार्थ की व्याख्या विद्वानों द्वारा अनेक प्रकार से की जाती है।
(8) कुछ मुख्य संवादसूक्त - वे सूक्त, जिनमें दो या दो से अèािक देवताओं, ऋषियों या किन्हीं और के मèय वार्तालाप की शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है प्राय: संवादसूक्त कहलाते हैं। कुछ प्रमुख संवाद सूक्त इस प्रकार हैं-
पुरूरवा-उर्वशी- संवाद ऋ. 10/95
यम-यमी-संवाद ऋ. 10/10
सरमा-पणि-संवाद ऋ. 10/108
विश्वामित्रा-नदी- संवाद ऋ. 3/33
वशिष्ठ-सुदास- संवाद ऋ. 7/83
अगस्त्य-लोपामुæा -संवाद ऋ. 1/179
इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि -संवाद कं. 10/86
संवाद सूक्तों की व्याख्या और तात्पर्य वैदिक विद्वानों का एक विचारणीय विषय रहा है; क्योंकि वार्तालाप करने वालों को मात्रा व्यकित मानना सम्भव नहीं है। इन आख्यानों और संवादों में निहित तत्त्वों से उत्तरकाल में साहित्य की कथा और नाटक विèााओं की उत्पत्ति हुर्इ है। इसके अतिरिक्त, आप्रीसूक्त, दानस्तुतिसूक्त, आदि कुछ दूसरे सूक्त भी अपनी शैली और विषय के कारण पृथक रूप से उलिलखित किये जाते हैं।
इस प्रकार ऋग्वेद की संहिता वैदिक देवताओं की स्तुतियों के अतिरिक्त दर्शन, लौकिक ज्ञान, पर्यावरण, विज्ञान, कथनोपकथन आदि अवान्तर विषयों पर भी प्रकाश डालने वाला प्राचीनतम आर्ष ग्रन्थ है। èाार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और दार्शनिक दृषिट से अत्यन्त सारगर्भित सामग्री को प्रस्तुत करने के साथ-साथ यह साहितियक और काव्य-शास्त्राीय दृषिट से भी विशिष्ट तथ्यों को उपस्थापित करने वाला महनीय ग्रन्थरत्न है।
(2) यजुर्वेद-संहिता
यजुर्वेद का यज्ञ के कर्मकाण्ड से सीèाा सम्बन्èा है। यज्ञ में अèवर्यु नामक ऋतिवज यजुर्वेद का प्रतिनिèाित्व करता है। इसलिए इस वेद को 'अèवर्युवेद भी कहते हैं। वैदिक कर्मकाण्ड का मुख्य आèाार यजुर्वेद है। यज्ञप्रèाान होने के कारण यजुर्वेद को चारों वेदों में भित्तिस्थानीय माना जाता है। इसलिए यजुर्वेद सबमें मुख्य है।
1. यजुष का अर्थ - यजुर्वेद की संहिता में 'यजुषों का संग्रह है। यज्ञसम्बन्èाी मन्त्राों को 'यजुष कहते हैं- 'यजुर्यजते:; जिनका उपयोग अèवर्यु ऋतिवज यज्ञ के अवसर पर करता है। गीति और पध से रहित मन्त्राात्मक रचना को भी 'यजुष कहते हैं-गधात्मको यजु:।
गधात्मक यजुष को अन्यत्रा ऋक और साम से भिन्न प्रकार के मन्त्रा बताया गया है-अनियताक्षरावसानो यजु:। इसका तात्पर्य है कि सभी गधात्मक मन्त्रा यजुष की कोटि में आते हैं। एक दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार जिन मन्त्राों से यज्ञ किया जाता है उनको यजुष कहते हैं-इज्यते•नेनेति यजु:।
ब्राह्राणग्रन्थों में यजुर्वेद को कभी विष्णु, कभी प्राण, कभी मन, कभी अन्तरिक्ष और कभी तेज कहा गया है-ये विवरण यजुर्वेद की महिमा का प्रतिपादन करते हैें।
2. यजुर्वेद के दो भाग-शुक्ल एवं कृष्ण। यजुर्वेद मुख्यतया दो भागों में विभक्त हैं-
1. शुक्ल यजुर्वेद,
2. कृष्ण यजुर्वेद।
इनके नामकरण के विषय में एक कथा पुराणों में दी गर्इ है। वेदव्यास ने पहले यजुर्वेद को अपने शिष्य वैशम्पायन को सिखलाया; जिन्होंने इसे याज्ञवल्क्य ऋषि को पढ़ाया। किसी कारण गुरु अपने शिष्य से रुष्ट हो गये और पढ़ार्इ गर्इ विधा को उनसे वापस मांगने लगे। याज्ञवल्क्य ने पठित-यजुषों का वमन कर दिया। तब दूसरे शिष्यों ने तित्तिर का रूप èाारण करके उसे चुग लिया। यही कृष्ण यजुर्वेद हुआ। फिर याज्ञवल्क्य ने सूर्य की आराèाना करके नवीन यजुषों को प्रकट किया। वही शुक्ल यजुर्वेद हुआ। इन दोनों के रूप में महान अन्तर है। आदित्य-सम्प्रदाय का प्रतिनिèाि शुक्ल यजुर्वेद है और ब्रह्रा-सम्प्रदाय का प्रतिनिèाि कृष्ण यजुर्वेद है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्राों का संग्रह है, जिनमें विनियोग-वाक्य नहीं है। कृष्ण यजुर्वेद में गधात्मक विनियोगों का मिश्रण है। गध और पध की इसी मिलावट के कारण उसको 'कृष्ण कहते हैं।
3. यजुर्वेद की शाखाएँ - महर्षि पत×जलि ने यजुर्वेद की 100 शाखाएं बतार्इ हैं। कूर्मपुराण में भी यजुर्वेद की 100 शाखाओं का उल्लेख है। परन्तु 'चरणव्यूह ग्रन्थ में यजुर्वेद की 86 शाखाओं का वर्णन हुआ है और वहां उनका विभाजन भी किया गया है। इन शाखाओं की संख्या क्रमश: कम होती गयी। अनेक लेखकों के नाम भी लुप्त हो गये। सम्प्रति यजुर्वेद की केवल छह शाखाएं उपलब्èा होती हैं; जिनमें दो शुक्ल यजुर्वेद की हैं और चार कृष्ण यजुर्वेद की हैं।
4. शुक्ल यजुर्वेद - शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं, जिनकी एक-एक संहिता उपलब्èा होती है-
1. वाजसनेयी संहिता
2. काण्व संहिता
शुक्ल यजुर्वेद की प्रमुख मन्त्रासंहिता 'वाजसनेयी संहिता के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि सूर्य ने 'वाजी का रूप èाारण करके इसका उपदेश दिया था। इनमें 40 अèयाय हैं और 1975 मन्त्रा हैं, जिनमें विशेष रूप से यज्ञों का वर्णन है। दर्श, पौर्णमास, अगिनहोत्रा, चातुर्मास्य, शतरुदि्रय, अश्वमेèा आदि के वर्णन और उनके विशिष्ट मन्त्राों का निर्देश शुक्ल यजुर्वेद का मुख्य विषय है। इसको 'माèयनिदन संहिता भी कहते हैं। इस का प्रचार उत्तर भारत में अèािक है। इसको सामान्य रूप से शुक्ल यजुर्वेदसंहिता नाम से जाना जाता है। इस संहिता का 40वां अèयाय र्इशावास्य उपनिषद के नाम से अत्यन्तप्रसिद्धहै।
काण्वसंहिता में भी 40 अèयाय हैं पर मन्त्राों की संख्या 2086 है। अत: वाजसनेयी संहिता से इसमें 111 मन्त्रा अèािक हैें। इसके मन्त्राों के क्रम में भी अन्तर है। इसके मन्त्रा गध और पध दोनों में हैं। महर्षि कण्व इस शाखा के प्रवर्तक हैं। आजकल काण्व शाखा की इस संहिता का प्रचलन अèािकतर महाराष्ट्र में ही है। काण्व संहिता के प्रथम 25 अèयायों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण महायज्ञों के मन्त्रा हैं। दर्शपूर्णमास, पिण्डपितृयज्ञ, नित्य अगिनकर्म, अगिनप्रतिष्ठा, अगिनहोत्रा कर्म, चातुर्मास्य कर्म आदि के मन्त्रा इसमें संगृहीत हैं। सोमयाग, पशुयाग, वाजपेययाग का विèाान और उनके मन्त्राों के विवरण इस संहिता में विशेष रूप से प्राप्त होते हैं। 31वें अèयाय में 'पुरुषमेèा का वर्णन है तो 32वें से 34वें अèयायों में 'सर्वमेèा के मन्त्रा हैं। 40वां अèयाय र्इशावास्योपनिषद है जो सब उपनिषदों काआèाारहै।
शुक्ल यजुर्वेद की दोनों संहिताओं की विषयवस्तु प्राय: एक सी ही है। स्पष्ट है कि इनमें वर्णित यज्ञों का विशेष उíेश्य है। कुछ स्वर्गप्रापित के लिए है, तो कुछ मोक्षप्रापित के लिए। कुछ का उíेश्य राजा की श्रीवृद्धि है तो कुछ का उíेश्य ब्रह्राचारी की मेèाावृद्धि और तेजसिवता की वृद्धि है। महत्त्वपूर्ण बात है कि यजुर्वेद की ये संहिताएं आèयातिमक और दार्शनिक महत्त्व के सूक्तों के लिए अति प्रसिद्ध है जिनमें शिवसंकल्प सूक्त और रुद्राèयाय का विशेष स्थान है।
5. कृष्ण यजुर्वेद - शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद के मुख्य अन्तर का आèाार यही है कि जहां
शुक्लयजुर्वेदसंहिता में केवल मन्त्राभाग हैं, वहीं कृष्णयजुर्वेद में मन्त्राों के साथ उनकी व्याख्या और विनियोग आदि भी वर्णित हैं।
सम्प्रति कृष्णयजुर्वेद की चार शाखाएं मिलती हैं, जिनकी संहिताएं उपलब्èा हैं-
1. तैत्तिरीय संहिता
2. मैत्राायणी संहिता
3. काठक संहिता
4. कपिष्ठल कठ संहिता।
इन सबमें तैत्तिरीय संहिता प्रèाान है, जिसमें सात काण्ड हैं। यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा सवा±गपूर्ण है, क्योंकि इसकी संहिता ही नहीं, ब्राह्राण, आरण्यक, उपनिषद, श्रौत्रासूत्रा आदि सभी प्राप्त होते हैं। इसका विषय विविèा याग और उनके अनुष्ठान ही हैेंं। इसमें मन्त्रा और व्याख्या भाग समिमलित रूप से प्राप्त होता है। मैत्राायणी और काठक संहिताएं तैत्तिरीय से मिलती हुर्इ सी हैं और इनमें यजुर्वेद के यागादि का ही वर्णन हुआ है। काठक संहिता का दूसरा नाम कठ संहिता भी है क्योंकि यह कठ शाखा की संहिता है। कपिष्ठल कठ संहिता अभी तक आèाी ही उपलब्èा है और लाहौर से उतनी ही प्रकाशित हुर्इ है। कृष्णयजुर्वेद में भी यज्ञों का ही वर्णन हुआ है, यधपि इनका क्रम शुक्लयजुर्वेद से कि×चित भिन्न है। कृष्ण यजुर्वेद की चारों संहिताओं में प्राय: स्वरूप की एकता है और विविèा यागों में प्रयुक्त मन्त्राों में भी बहुत समानता है। इसका कारण स्पष्ट है कि ये शाखाएं वस्तुत: एक यजुर्वेद की ही शाखाएं हैं।
6. यजुर्वेद का महत्त्व - यजुर्वेद अत्यन्त उपकारक वेद हैें। इसका महत्त्व इसके प्रार्थना मन्त्राों में है जो कुछ गधात्मक है और कुछ पधात्मक। इन मन्त्राों में भकित का स्रोत दिखायी देता है। जैसे यह मन्त्रा सर्वमंगल भावना को प्रस्तुत करता है-'इस यज्ञ से आयु की वृद्धि हो, इससे प्राणवायु बढ़े, चक्षु ठीक हो, कर्ण ठीक हो, पृष्ठभाग की वृद्धि हो (वाज. 9ध्21)।
इसी प्रकार मन के शुभ संकल्प की प्रार्थना बड़ी ही सारगर्भित और पे्ररणा देने वाली है-'जो मन विशेष और सामान्य ज्ञान का साèान है, जो èौर्य रूप है, जो प्राणियों के भीतर अमर ज्योति है, जिसके बिना कोर्इ काम नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो।
यत्प्रज्ञानमुत चेतो èाृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरममृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
-वाज. 34ध्3
यजुर्वेद के कुछ अèयाय भावगाम्भीर्य के कारण विशेष महत्त्व के हैं।
(3) सामदेव-संहिता
वेदत्रायी में सामवेद का स्थान अत्यन्त गौरवपूर्ण है। श्रीमदभगवदगीता में श्रीकृष्ण ने-वेदानां सामवेदो•सिम कहकर स्वयं को सभी वेदों में 'सामवेद बताया है। मनु के अनुसार सामवेद का सम्बन्èा सूर्य से है। शतपथ ब्राह्राण के अनुसार बिना सामों के यज्ञानुष्ठान सम्पन्न नहीं हो सकता। सामवेद का ऋतिवज उदगाता है इसलिए इस वेद का दूसरा नाम 'उदगातृवेद भी है।
1. सामन का अर्थ - 'सामन की संहिता 'सामवेदसंहिता है। सामन का अर्थ है-'गान। ऋग्वेद के मन्त्रा ही जब विशेष गान-पद्धति से गाये जाते हैं, तब उनको 'सामन कहते हैं। अत: सामन का अर्थ है-गीतियुक्त मन्त्रा। साम के लिए गीतियुक्त होना आवश्यक है।
पूर्वमीमांसा में गीति को ही साम कहा गया है-'गीतिषु सामाख्या।
ऋग्वेद और सामवेद का अन्योन्याश्रित सम्बन्èा है। गीतियुक्त ऋचा ही साम हो जाती है-इस भाव को अथर्ववेद, ऐतरेयब्राह्राण, बृहदारण्यक उपनिषद, छान्दोग्य उपनिषद आदि में अनेक तरह से कहा गया है। तात्पर्य यही है कि साम ऋचा पर आश्रित है।
जब तीन वेदों की बात की जाती है तब सामवेद को तीसरे स्थान पर रखते हैं। जैसे कि शतपथ ब्राह्राण ;11ध्5ध्8ध्3द्ध में वर्णन है-तीन वेद हुए, अगिन से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य में सामवेद।
2. सामवेद का स्वरूप - सामवेद गायन का वेद है। ऋचाएं ही गायी जाती हैं, इसलिए सम्पूर्ण सामवेद में अèािकांश ऋचाएं ही हैं। इनकी संख्या 1771 है। केवल 99 ऋचाएं ऐसी हैं, जो ऋग्वेद की संंहिता में नहीं मिलती है। जिनमें से पांच पुनरुक्त हैें। सामवेद की पूरी मन्त्रा संख्या 1875 है। इसलिए सामवेद की संहिता की स्वतन्त्रा सत्ता नहीं के बराबर है और कहा जाता है-ऋचि अèयूढं साम गीयते अर्थात ऋक पर आश्रित साम गाये जाते हैं। यज्ञ में उदगाता ऋतिवज ही इन सामों का गान करता है।
सामवेद के दो मुख्य भाग हैं-1. पूर्वार्चिक, और 2. उत्तरार्चिक। आर्चिक का शाबिदक अर्थ है-ऋचाओं का संकलन या समूह। पूर्वार्चिक में चार काण्ड-आग्नेय, ऐन्द्र, पावमान तथा आरण्यकाण्ड और महानाम्नी आर्चिक हैें। आग्नेय काण्ड का देवता अगिन, ऐन्द्र काण्ड का देवता इन्द्र, पावमान काण्ड का देवता सोम, आरण्य काण्ड का देवता इन्द्र, अगिन और सोम, तथा महानाम्नी आर्चिक का देवता इन्द्र है। सामवेद के पूर्वार्चिक में 6 अèयाय और 650 मन्त्रा हैं। उत्तरार्चिक में 21 अध्याय और 1225 मन्त्रा हैं। उत्तरार्चिक में कुल 400 सूक्त हैं। सामवेद के अèािकांश मन्त्रा ऋग्वेद के अष्टम और नवम मण्डल से लिये गये हैं।
पुराणों में सामवेद के प्रचार-प्रसार की विस्तृत परम्परा प्राप्त होती है। महर्षि व्यास ने अपने शिष्यों में से जैमिनि को सामवेद की शिक्षा प्रदान की थी। जैमिनि की शिष्य परम्परा में तीन शिष्य मुख्य थे-सुमन्तु, सुत्वान और सुकर्मा। इनमें सुकर्मा ने सर्वाèािक सामगान प्रचार किया।
यह कहा जाता है कि सामवेद ऋग्वेद पर आश्रित है अत: इसकी स्वतन्त्रा सत्ता नहीं है। परन्तु अनेक कारणों से शास्त्राों में सामवेद की स्वतन्त्रा सत्ता स्वीकार की गयी है।
दोनों संहिताओं की स्वरांकन-पद्धति पूरी तरह से पृथक-पृथक प्रकार की है। दोनों संहिताओं के ऋतिवज भिन्न-भिन्न हैं। सायण आदि भाष्यकारों ने सामवेद को स्वतन्त्रा वेद माना है और उस पर स्वतन्त्रा भाष्य भी लिखा है। विशेष बात यह है कि दोनों संहिताओं में मौलिक अन्तर है। ऋग्वेद का मुख्य कार्य देव स्तुति है तो सामवेद का संगीत। अत: यह भी सम्भव है कि सामवेद की स्वतन्त्रा सत्ता पर सन्देह करना मात्रा एक भ्रानित हो।
3. सामवेद की शाखाएं - पत×जलि ने सामवेद की एक सह़स्र शाखाओं की बात की है, किन्तु इसकी पुषिट नहीं होती है। सम्प्रति केवल तीन शाखाओं की संहिताएं ही उपलब्èा हैं-राणायनीय, कौथुमीय और जैमिनीय। श्री सातवलेकर ने सामवेद की राणायनीय और कौथुमीय शाखाओं को प्रकाशित किया है। वस्तुत: दोनों शाखाओं में मौलिक अन्तर नहीं के बराबर है।
(क) राणायनीय शाखा - राणायनीय शाखा और कौथुमीय शाखा के मन्त्राों तथा उनके क्रम में कोर्इ भेद नहीं है। केवल गणना की विèाि में अन्तर है। राणायनीय शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्थप्रपाठक, दशति और मन्त्रा के रूप में है। पाठभेद और कुछ उच्चारण भेद अवश्य है। इस शाखा का विशेष प्रचार दक्षिण भारत में रहा है।
(ख) कौथुमीय शाखा - संहिता की दृषिट से यह शाखा राणायनीय शाखा से भिन्न नहीं है। दोनों के मन्त्रा और उनका क्रम समान है, केवल गणना पद्धति का अन्तर है। इस शाखा का विभाजन अèयाय, खण्ड और मन्त्रा के रूप में है। कौथुमीय शाखा की ही एक शाखा ताण्डय है, जिसका विशालकाय ब्राह्राण ताण्डयमहाब्राह्राण कहलाता है। सामवेद की कौथुमीय शाखा का अèािक प्रचार उत्तर भारत में रहा है।
(ग) जैमिनीय शाखा - सामवेद की जैमिनीय शाखा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शाखा मानी जाती है।
डाñ रघुवीर ने इसका प्रकाशन लाहौर से किया था। जैमिनीय शाखा में 1687 मन्त्रा हैं। इसमें ऐसे कर्इ मन्त्रा हैं जो कौथुमीय शाखा में उपलब्èा नहीं हैं। मन्त्राों की संख्या की दृषिट से जैमिनीय शाखा कौथुमीय शाखा से कुछ छोटी है, तथापि सामगान की दृषिट से यह अèािक समृद्ध है। इस शाखा का महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि इसकी संहिता, ब्राह्राण, श्रौतसूत्रा और गृáसूत्रा सभी उपलब्èा होतेहैं।
4. सामवेद का महत्त्व - सामवेद का महत्त्व कर्इ दृषिटयों से हैं-
(1) प्राचीन याज्ञिकों में सामगान का बहुत महत्त्व है। माना जाता है कि बिना सामों के यज्ञानुष्ठान सम्पन्न नहीं होता है।
(2) सामवेदसंहिता का मूलतत्त्व ओंकार है। इसे ही प्रणव और ओम कहते हैं।
(3) बृहददेवता के अनुसार जो साम जानता है वह वेद का रहस्य जानता है।
(4) अथर्ववेद के अनुसार साम परब्रह्रा का लोेम है-'सामानि यस्य लोमानि।
(5) छान्दोग्योपनिषद में ऋचाओं का सार सामवेद को बताया गया है।
(6) सामवेद गीतिमय या संगीत का वेद है। संगीत का उदगम सामवेद से ही माना जाता है।
(7) सामवेद में सोम, सोमरस, सोमयाग का विशेष महत्त्व है। इसलिए इसे सोमप्रèाान वेद भी कहते हैं। आèयातिमक दृषिट से सोम शिव, आनन्द या ब्रह्रातत्त्व है जिसे प्राप्त करने का साèान उपासना है। भकित और संगीत द्वारा उसकी सिद्धि होती है।
(8) सामवेद में ज्ञान, कर्म और भकित का सुन्दर समन्वय है। पावमान काण्ड सम्पूर्ण भगवदभकित द्वारा आनन्द-प्रापित का वर्णन करता है। सामवेद में उपासना की प्रèाानता है।
(4) अथर्ववेद-संहिता
वैदिक मन्त्रा-संहिताओं में 'अथर्ववेद-संहिता का विशेष महत्त्व है। इसको प्राय: चतुर्थ वेद कहते हैें। चतुर्थ कहकर वास्तव में उसे वेदत्रायी से अलग दिखाया जाता है, किन्तु वेदार्थ की दृषिट से वह अन्य वेदों की तुलना में किसी प्रकार हेय नहीं है। इसका सम्बन्èा यज्ञ के विशेष ऋतिवज 'ब्रह्राा से है। ऋग्वेद आदि तीनों वेद आमुषिमक (पारलौकिक) फल देने वाले हैं, जबकि अथर्ववेद ऐहिक (सांसारिक) फल देने के साथ-साथ आमुषिमक (पारलौकिक) फल भी देता है। इस जीवन को सुखी और दु:खविहीन बनाने के लिए साèानों का विèाान इस में हैं। यह वेद ऋग्वेद के दार्शनिक विचारों को और अèािक विकसित तथा प्रौढ़ रूप में प्रस्तुत करता है। शानित और पुषिट कमो± का सम्पादन इसी वेद से होता है। अथर्ववेद का महत्त्व इसलिए भी स्वीकार किया जाता है क्योंकि इसमें प्रथम बार पृथिवी को 'माता कहा गया है।
1. अथर्ववेद के नाम - अथर्ववेद को ब्रह्रादेव, भैषज्यवेद, अंगिरावेद, अथर्वा³िगरस वेद, महीवेद, छत्रावेद आदि नामों से भी जाना जाता है। 'अथर्वन शब्द का अर्थ है-गतिहीन या सिथरता से युक्त योग। अत: इसमें चित्तवृत्तियों के निरोèारूपी योग का उपदेश है। यह नाम अथर्ववेद की आèयातिमकता पर प्रकाश डालता है। इस वेद में ऋषि 'अथर्वा के मन्त्रा सर्वाèािक हैं, सम्भव है इसलिए इस आèाार पर इसका नाम 'अथर्ववेद पड़ा हो। इसमें प्राप्त पृथिवीसूक्त के कारण इसे 'महीवेद कहते हैं। ब्रह्रा द्वारा दृष्ट मन्त्राों की अèािकता होने से इसका नाम 'ब्रह्रावेद है। चिकित्सा और औषèाियों के विपुल मन्त्राों के कारण इसे 'भैषज्यवेद की संज्ञा दी गयी है। इसमें अ³िगरा ऋषि और उनके वंशजों के मन्त्राों का संग्रह होने से इसे 'आंगिरस वेद भी कहा गया है। यहां राजाओं और क्षत्रियों के कर्तव्यों का विशेष रूप से वर्णन प्राप्त होने से इसे 'क्षत्रावेद कहा जाता है।
2. अथर्ववेद की शाखाएं - पत×जलि ने महाभाष्य में और शौनक ने चरणव्यूह में अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख किया है। नवèाा आथर्र्वणो वेद:-पत×जलि की प्रसिद्ध उकित है। ये नौ शाखाएंहैं-
1. पैप्पल, 2. दान्त, 3. प्रदान्त, 4. स्नात, 5. सौत्रा, 6. ब्रह्रादावन, 7. शौनक, 8. देवदर्शनी और 9. चारणविधा।
आचार्य सायण ने कुछ भिन्न नामों का उल्लेख किया है, जिनको अèािकतर विद्वान स्वीकार करते हैं। वे नाम हैं-1. पैप्पलाद, 2. तौद, 3. मौद, 4. शौनकीय, 5. जाजल, 6. जलद, 7. ब्रह्रावद, 8. देवदर्श, 9. चारणवैध।
सम्प्रति अथर्ववेद की दो शाखाएं ही मिलती हैं-शौनक और पैप्पलाद।
(क) शौनकीय शाखा - आजकल प्रचलित अथर्ववेद संहिता शौनक शाखा की है। इसमें 20 काण्ड, 730 सूक्त और 5987 मन्त्रा हैं। इसका 17वां काण्ड सबसे छोटा है। अथर्ववेद में यजुर्वेद की तरह कुछ भाग गध में है। पूरा 15वां और 16वां काण्ड गध मेें है और अन्य काण्डों में लगभग 30 सूक्त गधमय हैं। शौनक शाखा की अथर्ववेद संहिता का सर्वप्रथम प्रकाशन 1856 र्इ. में हिवटनी ने किया था। यह शाखा ऋषि शौनक के नाम से है।
(ख) पैप्पलाद शाखा - इस शाखा की संहिता पैप्पलाद संहिता कहलाती है। इसे ब्लूमफील्ड ने सबसे पहले 1901 र्इ. में अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया था। यह संहिता अपूर्ण ही प्राप्त होती है। प्रतीत होता है कि पत×जलि के समय पैप्पलाद शाखा का प्रचलन था क्योंकि उन्होंने 'शं नो देवीरभिष्टय इत्यादि मन्त्रा को प्रथम मन्त्रा के रूप में दिया है। शौनक शाखा में यह मन्त्रा प्रथम काण्ड के छठे सूक्त का प्रथम मन्त्रा है। यह शाखा ऋषि पैप्पलाद के नाम से है।
3. अथर्ववेद की परवर्तिता - पाश्चात्य विद्वान और कुछ भारतीय विद्वान मानते हैं कि अथर्ववेद की संहिता अन्य वेदों की संहिताओं की अपेक्षा परवर्ती है। इस विषय में विद्वानों द्वारा कुछ तर्क दिये जाते हैें।
अथर्ववेद को मन्त्राों की रचना, संहिताकरण, नामकरण आदि के आèाार पर अपेक्षाकृत परवर्ती माना जाता है। इस मान्यता का सबसे बड़ा आèाार यह है कि 'वेदत्रायी की प्रचलित èाारणा में प्रारमिभक तीन वेद ही समाविष्ट किये जाते हैं। फिर ऋग्वेद और यजुर्वेद में स्पष्ट रूप से अथर्ववेद का उल्लेख नहीं है। अन्य वेदों की विषय-वस्तु भी इससे भिन्न है। इसकी भाषा भी अपेक्षाकृत अर्वाचीन प्रतीत होती है। अथर्ववेद का संकलन भी विशेष है। कहीं पर मन्त्राों की संख्या के आèाार पर काण्डों का विभाजन है तो कहीं पर विषय के आèाार पर।
4. अथर्ववेद के उपवेद - गोपथ ब्राह्राण में पांच उपवेदों का उल्लेख है। ये हैं-
(1) सर्पवेद
(2) पिशाचवेद
(3) असुरवेद
(4) इतिहासवेद
(5) पुराणवेद
अथर्ववेद सम्बद्ध उपवेदों के विषय प्राय: उनके नाम पर आèाारित है और प्रकट करते हैं कि अथर्ववेद एक व्यापक वेद हैं।
5. अथर्ववेद का वण्र्य-विषय - प्रो. ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद का पूरा नाम 'अथर्वा³िगरस वेद स्वीकार किया है और इसके प्रतिपाध़ की विवेचना शीर्षकों में की है जिससे उसके सूक्तों के वण्र्यविषय का स्पष्टीकरण सरलता से हो जाता है, जैसे-
1. भैषज्याणि अर्थात रोगों और दानवों से मुकित की प्रार्थनाएं
2. आयुष्याणि अर्थात दीर्घायु एवं स्वास्थ्य के लिए प्रार्थनाएं
3. अभिचारकाणि अर्थात राक्षसों, अभिचारकों एवं शत्राुओं के प्रतिकूल आचार
4. स्त्राीकर्माणि अर्थात स्त्राीविषयक अभिचार
5. सांमनस्यानि अर्थात सांमनस्य प्राप्त करने वाले अभिचार
6. राजकर्माणि अर्थात राज्यविषयक अभिचार
7. ब्राह्राण्याणि अर्थात ब्राह्राणों के हित में प्रार्थनाएं
8. पौषिटकाणि अर्थात सम्पन्नता-प्रापित और भय से मुकित के अभिचार
9. प्रायशिचत्तानि अर्थात पाप और दुष्कर्म के लिए प्रायशिचत्त विषयक अभिचार
10. सृषिटविषयक और आèयातिमक सूक्त
11. याज्ञिक एवं सामान्य सूक्त
12. वैयकितक (विवाह, परिव्राजक-प्रशंसा, अन्त्येषिट आदि) विषयों का विवेचन करने वाले सूक्त (काण्ड 13-18)
13. बीसवां काण्ड
14. कुन्ताप सूक्त (बीसवें काण्ड का कुछ अंश)।
इस प्रकार अथर्ववेद-संहिता विविèा विषयों पर वैविèयपूर्ण विचारों को प्रस्तुत करती है। इसमें कुछ ब्रहमविधाविषयक सूक्त, जैसे केनसूक्त, स्कम्भसूक्त, ज्येष्ठब्रह्रासूक्त, उचिछष्टसूक्त आदि अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, जिनमें अत्यन्त चारुता के साथ ब्रह्राविधा के रहस्यों का वर्णन किया गया है और जिनके कारण ही यह वह 'ब्रह्रावेद कहलाता है। अèयात्मविषयक सूक्तों में 'प्राणसूक्त प्रसिद्ध है। ब्रह्राचर्याश्रमविषयक सूक्तों में ब्रह्राचर्यसूक्त, मेखलासूक्त, मेèाासूक्त और श्रद्धामेèाासूक्त उल्लेखनीय हैं। भूमिसूक्त में मातृभूमि की मनोरम कल्पना की गर्इ है। 15वें काण्ड में व्रात्यसूक्तों में वानप्रस्थ और संन्यास का दिग्दर्शन मिलता है।
6. अथर्ववेद का महत्त्व - अथर्ववेद में आयुर्वेद का विस्तृत विवेचन हुआ है। इसमें अपामार्ग, पिप्पली, रोहिणी, पृशिनवर्णी आदि औषèाियों का वर्णन, उन्मत्ता, कास, कुष्ठ, ज्वर, क्लीबत्व, गण्डमाला, हृदयरोग, कामला आदि रोगों की चिकित्सा एवं सर्पविष आदि विषों के दूरीकरण के विवरण आयुष्यवर्èान आदि के लिए किये गये हैें।
राजा के निर्वाचन, राज्याभिषेक, राजनीति, राष्ट्रसमृद्धि, शत्राुविजय आदि के विस्तृत वर्णन इस संहिता में हैं। कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, मणिèाारण, स्वसित, अभ्युदय आदि विविèा विषयों पर प्रकाश डालकर यह संहिता वस्तुत: ज्ञान का एक विशाल भण्डार सी प्रतीत होती है।
अथर्ववेद एक ऐसा आकर ग्रन्थ है जिसमें दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और आभिचारिक विषयों का गंभीर प्रतिपादन हुआ है और जिससे इस संहिता का महत्त्व स्वत: ही पुष्ट होता है।