पाठ-4
वेद³ग-साहित्य
'वेदा³ग वैदिक वा³मय के अनितम भाग हैं। वेदा³ग-विधा अति प्राचीन है, क्योंकि यास्क ने निरुक्त के प्रारम्भ में लिखा है कि अति प्राचीनकाल में ऋषियों ने वेदों के साथ वेदा³गों का प्रणयन भी किया था।
1. वेदा³ग का अर्थ
वेदा³ग का अर्थ है-वेद का अ³ग (वेदस्य अ³गानि)। 'अ³ग वे उपकारक तत्त्व होते हैं, जिनसे किसी के स्वरूप का बोèा होता है। अत: वेदों के वास्तविक अर्थ के ज्ञान के लिए जिन साèानों की आवश्यकता थी, उन्हें 'वेदा³ग नाम दिया गया।
2. वेदा³ग का महत्त्व
वेदा³गों से वेद के मन्त्राों का अर्थ, उनकी व्याख्या और विनियोग आदि का ज्ञान होता है। वैदिक शब्दों का शुद्ध उच्चारण किस प्रकार किया जाए इसके लिए शिक्षा-ग्रन्थों की रचना हुर्इ। शब्दों की व्युत्पत्ति, स्वर और अर्थ के ज्ञान के लिए व्याकरण तथा प्रतिशाख्य ग्रंथों की रचना हुर्इ। वैदिक छन्दों की रचना और उच्चारण को जानने के लिए छन्द:शास्त्रा का प्रणयन हुआ। शब्द की रचना और उनमें निहित अर्थ को जानने के लिए निरुक्त जैसे ग्रन्थों की रचना हुर्इ। यज्ञ का समय, मुहूर्त आदि की जानकारी के लिए ज्योतिष शास्त्रा की रचना हुर्इ। यज्ञ की सम्पूर्ण विèाि और यज्ञ की वेदि एवं उसके आकार आदि के निर्देशन के लिए कल्प ग्रन्थों का प्रणयन किया गया। इस प्रकार सभी वेदा³ग ग्रन्थ किसी न किसी रूप में वेद के स्वरूप और अर्थ के बोèा में सहायक हैं।
वेदा³गों की रचना का काल वैदिक वा³मय का उत्तरवर्ती काल माना जाता है। अèािकतर वेदा³ग ग्रन्थों की रचना 1500 र्इ0 पूर्व से 500 र्इ0 पूर्व के बीच में हुर्इ है।
मुण्डकोपनिषद में आचार्य अंगिरा ने शौनक मुनि को छह वेदा³गों के नाम बताये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। छहों वेदा³गों का सर्वप्रथम उल्लेख मुण्डक उपनिषद में अपरा विधा के अन्तर्गत चार वेदों के नाम के बाद हुआ है। पाणिनीय शिक्षा में वेद-पुरुष के छह अंगों के रूप में छह वेदा³गों का वर्णन हुआ है-छन्द वेदपुरुष के पैर हैं, कल्प हाथ हैं, ज्योतिष नेत्रा हैं, निरुक्त कान हैं, शिक्षा नासिका है और व्याकरण मुख है।
छन्द: पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पो•थ पठयते।
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रामुच्यते।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम।
तस्मात सा³गमèाीत्यैव ब्रहमलोके महीयते।।
-पा0 शिक्षा 41.42
1. शिक्षा
'शिक्षा का अभिप्राय है-स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण की शिक्षा देना। पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है कि बिल्ली जिस प्रकार अपने बच्चे को दांत से पकड़ती है, न तो बच्चे गिरते हैं और न उन्हें दांत गड़ते हैं, उसी प्रकार संतुलन बनाये रखकर अक्षरों का उच्चारण करना चाहिए। सम्यक उच्चारण के लिए मन्त्राों के साथ लगे उदात्त आदि स्वरों का उच्चारण आवश्यक है। वेदाèययन में शुद्ध उच्चारण पर बहुत बल दिया जाता है। 'शिक्षा वेदा³ग का निरूपण उपनिषद काल से भी प्रारम्भ हो जाता है।
तैत्तिरीय उपनिषद की 'शिक्षावल्ली में शिक्षा के छह नाम दिये गये हैं : वर्ण, स्वर, मात्राा, बल, साम, और सन्तान।
1. वर्ण (या èवनियां) - वेदों में 52 वर्ण èवनियां प्राप्त होती हैं : स्वर 13, स्पर्श 27, य, र, ल, व, श, ष, स, ह-8, विसर्ग, अनुस्वार, जिहवामूलीय और उपèमानीय 4 त्र 52। पाणिनीय शिक्षा में वणो± की संख्या 63 मानी गयी है।
2. स्वर - स्वर तीन हैं-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित।
3. मात्राा - स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्राा कहते हैं। ये तीन हैं-हृस्व, दीर्घ और प्लुत। हृस्व की एक मात्राा, दीर्घ की 2 मात्राा और प्लुत की 3 मात्राा होती है।
4. बल - वणो± के उच्चारण में होने वाले प्रयत्न और उसके उच्चारण स्थान को 'बल कहते हैं। प्रयत्न 2 हैं-आम्यन्तर और बाहय। स्थान 8 हैं-कण्ठ, तालु, जिहवा, दन्त आदि।
5. साम - साम का अभिप्राय है समविèाि से स्पष्ट और सुस्वर उच्चारण करना। वणो± के स्पष्ट उच्चारण के लिए, किसी वर्ण को èाीरे, या शीघ्रता से, या बिना अर्थ जाने न बोलेंं।
6. सन्तान - संèािनियमों को जानना और उनका यथास्थान प्रयोग करना आवश्यक है। सन्तान का अर्थ है संहितापाठ और पदपाठ में प्रयुक्त शब्दों में संèाि-नियमों को लगाना।
पाणिनीय शिक्षा में पाठक के छह गुण गिनाये गये हैं-
मèाुर èवनि से बोलना (माèाुर्य);
अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण (अक्षर व्यकित);
पदों को पृथक-पृथक करके बोलना (पदच्छेद);
स्वर से बोलना (सुस्वर);
शानित से बोलना (èौर्य);
लय के साथ बोलना (लयसमर्थ)।
इसके साथ ही पाठक के दोष भी बताये गये हैं जैसे शीघ्रता से बोलना, बोलते समय सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ़ना, अर्थज्ञान के बिना बोलना और अèाूरे मन्त्रा को बोलना।
शिक्षा ग्रन्थ
उपलब्èा शिक्षा-ग्रन्थों की संख्या 34 है। पाणिनीय शिक्षा, नारदीय शिक्षा, याज्ञवल्क्य शिक्षा, व्यास शिक्षा, पाराशरी शिक्षा, वासिष्ठी शिक्षा, कात्यायनी शिक्षा आदि उल्लेखनीय शिक्षा-ग्रन्थ हैं। ये शिक्षाएं जिनके नामों से सम्बद्ध हैं, वे इनके रचयिता नहीं है। इनकी रचना का श्रेय उनके शिष्यों को है।
'प्रतिशाख्य ग्रन्थ शिक्षा वेदा³ग के प्राचीनतम प्रतिनिèाि हैं। 'प्रातिशाख्य नाम से ही स्पष्ट है कि प्रत्येक वेद का अपना प्रातिशाख्य होना चाहिए। वेद का सांगोपांग व्याकरण प्रातिशाख्य नहीं है, अपितु इनमें वर्णविचार, पदविचार, संèाियां, स्वर-प्रक्रिया आदि का विचार किया जाता है। ऋकप्रातिशाख्य, वाजसनेयि-प्रातिशाख्य, तैत्तिरीयप्रातिशाख्य, पुष्पसूत्रा, ऋक तन्त्रा, अथर्ववेदप्रातिशाख्यसूत्रा आदि कुछ मुख्य प्रातिशाख्य हैें।
2.कल्प
वेदा³गों में कल्प का नितान्त महत्त्वपूर्ण और प्राथमिक स्थान है। कल्प का अर्थ है-वेद में विहित कमो± की क्रमपूर्वक व्यवसिथत कल्पना करने वाला शास्त्रा। सायण की परिभाषा के अनुसार जिन ग्रन्थों में यज्ञ सम्बन्èाी विèाियों का समर्थन या प्रतिपादन किया जाता है उन्हें 'कल्प कहते हैं। विष्णुमित्रा की व्याख्या के अनुसार जिन ग्रन्थों में वैदिक कमो± का सांगोपांग विवेचन किया जाता है उन्हें 'कल्प कहते हैं। तात्पर्य है कि वैदिक ग्रन्थों में जिन यज्ञ-यागादि तथा उपनयन, विवाह आदि कमो± का प्रतिपादन किया गया है, उन्हीं का क्रमबद्ध विवरण करने वाले सूत्रा ग्रन्थ 'कल्प कहलाते हैं। ये ग्रन्थ सूत्रा रूप में लिखे गये हैं, इसलिये इन्हें 'सूत्रा भी कहते हैं।
कल्पसूत्राों का महत्त्व अनेक दृषिटयों से आंका जाता है। शास्त्राीय दृषिट से ये ग्रन्थ ब्राहमणों और आरण्यक ग्रन्थों को जोड़ने वाली कड़ी हैं। बड़े यागों की विèाियों को संक्षेप में सूत्रा रूप में बताने से इनका विशेष महत्त्व है। सामाजिक दृषिट से कल्पसूत्राों की महत्ता स्वीकार योग्य है, क्योंकि इनके विवरणों द्वारा तत्कालीन प्राचीन परम्पराओं, मान्यताओं, रुढि़यों आदि का ज्ञान होता है। विवाह आदि संस्कारों की विèाियों की प्राचीन पद्धतियों की जानकारी गृáसूत्राों से होती है। èार्मसूत्राों से तत्कालीन नैतिक मूल्यों का ज्ञान होता है। ये स्मृति ग्रन्थों के पूर्वरूप माने जा सकते हैें। कल्पसूत्राों की भाषा सरल और संक्षिप्त है। इनमें हमें कर्मकाण्ड के विकास का इतिहास देखने को मिलता है।
कल्पसूत्राों के भेद
कल्पसूत्रा मुख्यत: चार प्रकार के होते हैं-
1. श्रौतसूत्रा - जिनमें ब्राह्राण ग्रन्थों में वर्णित और श्रौत अगिन में किये जाने वाले यज्ञ-यागों का वर्णन मिलता है, जैसे-दर्शपूर्णमास, अग्न्याèाान, अगिनहोत्रा, चातुर्मास्य आदि।
2. गृहयसूत्रा - जिनमें गृहागिन में होने वाले यागों का वर्णन है, जैसे विवाह, उपनयन, अन्त्येषिट आदि।
3. èार्मसूत्रा - जिनमें चारों वणो± तथा चारों आश्रमों के कर्तव्यों, विशेषत: राजा के कर्तव्यों का प्रतिपादनहै।
4. शुल्बसूत्रा - जिनमें यज्ञवेदी आदि के निर्माण का वर्णन है।
इन सभी सूत्रा ग्रन्थों को वेदानुसार विभाजित किया जाता है।
इन चारों प्रकार के सूत्राग्रन्थों में अनेक ग्रन्थों का समावेश किया जाता है। आश्वलायन श्रौतसूत्रा, आश्वलायन गृáसूत्रा, कात्यायन श्रौतसूत्रा, पारस्कर गृáसूत्रा, बौèाायन श्रौतसूत्रा, मानव श्रौतसूत्रा, आपस्तम्ब कल्पसूत्रा, आस्तम्ब èार्मसूत्रा, वसिष्ठ èार्मसूत्रा आदि अनेकानेक ग्रन्थों से कल्प साहित्य अत्यन्त समृद्ध है।
3. व्याकरण
व्याकरण नामक वेदा³ग पद के स्वरूप और उसके अर्थ का प्रमुख निर्णायक है। इसके बिना प्रकृति और प्रत्यय का विश्लेषण नहीं हो सकता। तभी व्याकरण की परिभाषा के अन्तर्गत कहा जाता है कि 'व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम। अत: व्याकरण नामक वेदा³ग पद-पदार्थ, वाक्य-वाक्यार्थ की अभिव्यकित और प्रकृति-प्रत्यय के विश्लेषण का साèान है।
पाणिनीय शिक्षा में व्याकरण को वेद पुरुष का मुख कहा गया है। जिस प्रकार शरीर में मुख सौन्दर्य, भावाभिव्यकित और गरिमा का प्रतीक है, उसी प्रकार व्याकरण शास्त्रा शब्दार्थज्ञान और शब्द की सुन्दरता के ज्ञान का साèान है।
वररुचि ने अपने वार्तिक में व्याकरण के पांच प्रयोजन बताए हैं-
1. वेद की रक्षा
2.ऊह - नये पदों की कल्पना और यथास्थान विभकित-परिवर्तन
3. आगम
4. लघु (संंक्षेप में शब्द-ज्ञान)
5. सन्देह-निवारण
पत×जलि ने अपने महाभाष्य में तेरह प्रयोजन बताएं हैं जिनमें 'अशुद्ध शब्दों के प्रयोग से बचना एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है।
व्याकरण के आचार्य और परम्परा
संस्कृत व्याकरण की परम्परा बहुत प्राचीन है। व्याकरण का प्राचीन रूप 'निर्वचन ब्राहमण ग्रन्थों में मिलता है। ब्राहमण ग्रन्थों के बाद प्रातिशाख्य ग्रन्थ व्याकरण के प्रारमिभक और व्यवसिथत रूप हैं। यास्क ने निरुक्त में भी व्याकरण के कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। प्राचीन ग्रन्थों में महेश्वर आदि 16 वैयाकरणों का उल्लेख हुआ है। पाणिनि ने अष्टाèयायी में आपिशलि, काश्यप, गागर््य, शाकटायन, भरद्वाज आदि 10 वैयाकरणों का उल्लेख किया है। पाणिनि का व्याकरण वैदिक और लौकिक संस्कृत-दोनों से सम्बद्ध माना जा सकता है, क्योंकि इसमें लगभग 500 सूत्रा वैदिक व्याकरण के विषय में है। पाणिनि से पहले ऐन्द्रव्याकरण की रचना के संकेत यत्रा-तत्रा मिलते हैें।
4. निरुक्त
निरुक्त का अर्थ है-निर्वचन, व्युत्पत्ति। शब्द के मूल रूप का ज्ञान कराना और समानार्थक तथा नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है। सायण के अनुसार-'अर्थावबोèो निरपेक्षतया पदजातं यत्राोक्तं तनिनरुक्तम अर्थात अर्थज्ञान के लिए जहां स्वतन्त्रा रूप से पदों का समूह कहा गया है वह निरुक्त है। इसे सामान्य रूप से शब्द-व्युत्पत्ति शास्त्रा कह सकते हैं। भाषाशास्त्रा की दृषिट से निरुक्त का बहुत महत्त्व है। यह अर्थविज्ञान के अन्तर्गत एक विèाा के रूप में भी रखा जाता है।
वेदा³ग निरुक्त के अन्तर्गत सम्प्रति यास्क का निरुक्त ही उपलब्èा है। 'निरुक्त वेदा³ग का एक ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसके रचयिता 'यास्क है। निरुक्त वस्तुत: निघण्टु की टीका है। महाभारत के अनुसार प्रजापति कश्यप इस निघण्टु के रचयिता हैं। निघण्टु में वेद के कठिन शब्दों का समुच्चय किया गया है। निरुक्त के आरम्भ में निघण्टु को 'समाम्नाय कहा गया है। निघण्टु एक प्रकार का वैदिक शब्दकोष है, जिसमें कुल 1341 शब्द परिगणित हैं। इसके प्रथम तीन अèयाय 'नैघण्टुक काण्ड, चतुर्थ अèयाय 'नैगम काण्ड और अनितम अèयाय 'दैवत काण्ड कहलाते हैं। यास्क ने निघण्टु के 230 शब्दों का निर्वचन किया है। संक्षेप में निरुक्त के प्रतिपाध विषय पांच माने गये हैं-
1. वर्णागम-विचार
2. वर्ण-विपर्यय-विचार
3. वर्ण-विकार-विचार
4. वर्णनाश-विचार
5. èाातुओं का अनेक अथो± में प्रयोग।
वेदार्थानुशीलन में यास्क के निरुक्त का बड़ा महत्त्व है। भाषाविज्ञान, अर्थविज्ञान, शब्दनिर्वचनशास्त्रा और शब्दव्युत्पत्ति की दृषिट से भी इसका विशेष स्थान है। मैक्समूलर ने लिखा है कि यास्क ने जितने संतोषजनक रूप से अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति पर प्रकाश डाला है, उतना आज के वैज्ञानिक युग में भी संदिग्èा है। निरुक्त का आèाार नितान्त वैज्ञानिक है। यास्क के निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द, महेश्वर और वररुचि की टीकाएं उपलब्èा होती हैं। टीकाकार दुर्गाचार्य के अनुसार निरुक्त संख्या में 14 थे। यास्क के निरुक्त में पूर्ववर्ती बारह निरुक्तकारों के नाम प्राप्त होते हैं-आग्रायण, औपमन्यव, औदुम्बरायण, और्णवाभ, कात्थक्य, क्रौष्टुकि, गाग्र्य, गालव, तैटीकि, वाष्र्यायणि, शाकपूणि और स्थौलाष्ठीवि। यास्क ने यथास्थान इनके मतों का उल्लेख किया है। महाभारत शानितपर्व में यास्क ऋषि के निरुक्तकार होने का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि यास्क ने नष्ट हुए निरुक्तशास्त्रा का पुनरुद्धार किया। यास्क पाणिनि से पूर्ववर्ती थे। इसका समय विद्वानों द्वारा प्राय: 800 र्इ0 पूर्व के लगभग माना जाता है।
5. छन्द
वैदिक मन्त्राों के सम्यक उच्चारण के लिये छन्दोज्ञान अति आवश्यक है। छन्दों के सम्यक ज्ञान के बिना मन्त्राों का उच्चारण अथवा पाठ ठीक से नहीं हो सकता। सर्वानुक्रमणी में कात्यायन द्वारा कहा गया है-'जो व्यकित ऋषि, देवता और छन्दों के ज्ञान के बिना वेदाèययन करता है वह पाप का भाजन होता है। छन्दोज्ञान की महत्ता पर आर्षेय ब्राह्राण में कहा गया है कि ''जो कोर्इ छन्द के ज्ञान के बिना मन्त्रा या ब्राह्राण से यज्ञ करता है या पढ़ता है, वह स्थाणुत्व को प्राप्त करता है या गडढे में गिरता है या पापी होकर मर जाता है। अत: प्रत्येक मन्त्रा के छन्द का ज्ञान श्रेयस्कर है। इसीलिए छन्दशास्त्रा को वेदा³ग में स्थान दिया गया है।
प्रèाान छन्दों के नाम संहिता तथा ब्राह्राण ग्रन्थों में ही उपलब्èा होते हैं। इससे प्रतीत होता है कि इस अंग की उत्पत्ति वैदिक युग में ही हो गर्इ थी। वैदिक संहिताओं का अèािकांश भाग छन्दोमय है। ऋग्वेद और सामवेद के समस्त मन्त्रा छन्द में हैं जबकि कृष्ण यजुर्वेद और अथर्ववेद का कुछ भाग गध में भी मिलता है। पाणिनीय शिक्षा में छन्द को वेद केे पाद कहा गया है। जिस प्रकार बिना पैरों के मनुष्य खड़ा नहीं हो सकता और न चल सकता है उसी प्रकार छन्द के आèाार के बिना वेद लंगड़ाने लगता है-चलने में असमर्थ रहता है।
वेदों में सात छन्द अति प्रसिद्ध हैं-गायत्राी, उषिणक, अनुष्टुप, बृहती, प³कित, त्रिष्टुप और जगती। वैदिक छन्दों में पादों की संख्या नियमित नहीं होती है। वैदिक छन्दों का आèाार अक्षर-गणना है।
प्रèाान वैदिक छन्द
नाम पाद योग
1 2 3 4 5
गायत्राी 8 अक्षर 8 8 24
उषिणक 8 8 12 28
अनुष्टुप 8 8 8 8 32
बृहती 8 8 12 8 36
प³कित 8 8 8 8 8 40
त्रिष्टुप 11 11 11 11 44
जगती 12 12 12 12 48
इन छन्दों के अनेक अवान्तर भेद भी संहिताओं में मिलते हैं। प्रातिशाख्य ग्रन्थों में उसका विवेचन उपलब्èा है। लौकिक संस्कृत छन्दों की उत्पत्ति प्राय: इन्हीं वैदिक छन्दों से मानी जाती है।
छन्दपरक ग्रन्थ
छन्द-सम्बन्èाी कोर्इ स्वतन्त्रा वैदिक ग्रन्थ इस समय उपलब्èा नहीं है। छन्दों का प्राचीनतम वर्णन देवताèयाय ब्राह्राण में मिलता है। जिस प्रकार व्याकरण-ग्रन्थों में पाणिनि की 'अष्टाèयायी प्रसिद्ध ग्रन्थ है, उसी प्रकार छन्दशास्त्राों में पाणिनि के अनुज पि³गलाचार्य का छन्द:सूत्रा अति प्रसिद्ध है, जो आज उपलब्èा है और जिस पर अनेक टीकाएं लिखी गयी हैं। यह ग्रन्थ सूत्रा रूप में है और आठ अèयायों में विभक्त है। आरम्भ से चौथे अèयाय के सातवें सूत्रा तक वैदिक छन्दों के लक्षण दिये गये हैं। तदनन्तर लौकिक छन्दों का वर्णन है। इसके ऊपर भटट हलायुध कृत 'मृतसंजीवनी नामक व्याख्या प्रसिद्ध है।
6. ज्योतिष
वेदों के लिये 'ज्योतिष वेदा³ग का महत्त्व निर्विवाद है। शुभ मुहुर्त में यज्ञ-सम्पादन के लिए इसकी आवश्यकता होती है। वैदिक यागों में तिथि, नक्षत्रा, पक्ष, मास, ऋतु तथा संवत्सर आदि का सूक्ष्म विèाान होता है। ज्योतिष कालविज्ञान का शास्त्रा है। वेद में यज्ञ का महत्त्व है और यज्ञ-सम्पादन के लिए विशिष्ट समय की अपेक्षा होती है। अत: वेदा³ग ज्योतिष की महत्ता सर्वोपरि है। 'ज्योतिष का अर्थ है ज्योतिर्विज्ञान। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रा आदि आकाशीय पदाथो± की गणना ज्योतिर्मय पदाथो± में होती है और इनसे सम्बद्ध विज्ञान ही ज्योतिष या ज्योतिर्विज्ञान है। लगèा ने इसको 'ज्योतिषाम अयनम अर्थात नक्षत्रा आदि की गति का अèययन करने वाला शास्त्रा कहा है। वस्तुत: ज्योतिष में कालविज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान दोनों का समन्वय होता है।
ज्योतिष विषयक केवल एक ही प्राचीन ग्रन्थ उपलब्èा होता है, वह है-महर्षि लगèा कृत वेदा³ग ज्योतिष। यह ग्रन्थ दो भागों में मिलता है। 1. आर्च ज्योतिष - यह ऋग्वेद सम्बन्èाी ज्योतिष है जिसमें 36 श्लोक हैं। 2ण् याजुष ज्योतिष - यह यजुर्वेद सम्बन्èाी ज्योतिष है जिसमें 43 श्लोक हैं। बहुत से श्लोक दोनों भागों में समान हंै। इनके लेखक महर्षि लगèा माने जाते हैं। इस ग्रन्थ की भाषा अत्यन्त कठिन है और इसमें कुछ अंश अभी भी अर्थ की दृषिट से दुरूह समझे जाते हैं। इस ग्रन्थ पर अनेक भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने बहुत परिश्रम किया है। इस पर एक प्राचीन टीका सोमाकर की प्राप्त होती है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने वेदा³ग ज्योतिष का समय 1400 र्इ0 पूर्व माना है। वैदिक ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, ग्रह तथा नक्षत्राों की गति का निरीक्षण, परीक्षण एवं विवेचन होता है। इसमें सौर तथा चान्द्र मासों की गणना भी होती है। यज्ञिय कायो± के लिए चान्द्र मास को मुख्य माना जाता है। गणना के लिए इस ग्रन्थ में पांच वर्ष का युग माना गया है। इन पांच वषो± के नाम हैं : संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इदवत्सर और वत्सर। ये नाम शतपथ ब्राह्राण में भी दिये गये हैं। तैत्तिरीय ब्राह्राण और तैत्तिरीय आरण्यक में चतुर्थ वर्ष का नाम अनुवत्सर और पंचम वर्ष का नाम इदवत्सर दिया गया है। पांच वर्ष का युग मानने का कारण यह है कि ठीक पांच वर्ष बाद सूर्य और चन्द्रमा राशिचक्र के उसी नक्षत्रा पर पुन: एक सीèा में होते हैं। ज्योतिष के सिद्धान्त-ग्रन्थों में बारह राशियों से गणना की जाती है, परन्तु इस ज्योतिष में राशियों का कहीं भी नाम-निर्देश नहीं है, प्रत्युत गणना के आèाार अटठार्इस नक्षत्रा ही हैं।
अनुक्रमणिकाएं
वेदा³गों के अतिरिक्त वैदिक वा³मय के अन्तर्गत अनुक्रमणिकाएं भी उलिलखित की जाती हैं, जो वेदों से सम्बद्ध हैं। इनमें देवताओं, छन्दों, विषयों आदि की विस्तृत सूचियां होती हैं। लगभग सभी वेदों की अपनी-अपनी अनुक्रमणिकाएं हैं। ऋग्वेद के देवताओं का रहस्य बताने वाला बृहददेवता नामक ग्रन्थ अनुक्रमणी-साहित्य का विशिष्ट ग्रन्थ है, जिसके रचयिता शौनक हैें। बारह सौ पधों में निर्मित यह ग्रन्थ ऋग्वेद के देवताओं के विषय में प्रामाणिक, प्राचीन और विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। यह ग्रन्थ आठ अèयायों में विभक्त है। इसमें सूक्तों के विषय में उपलब्èा आख्यानों का निर्देश बड़े सुन्दर ढंंग से किया गया है। ये आख्यान बृहíेवता के प्राण हैं और प्राय: इनका सम्बन्èा महाभारत के आख्यानों से दिखार्इ देता है। इस दृषिट से इसे कथासाहित्य का आदि ग्रन्थ कहा जा सकता है। अक्सर सायण और कात्यायन यहीं से आख्यानों का ग्रहण करते प्रतीत होते हैं। यह ग्रन्थ यास्क के निरुक्त और कात्यायन की सर्वानुक्रमणी के बीच की रचना है।
कात्यायन की ऋक सर्वानुक्रमणी ऋग्वेद के समस्त विषयों के ज्ञान के लिए उपादेय और प्रामाणिक ग्रन्थ हैं। यह सूत्रा रूप में लिखा हुआ है। 'शुक्लयजुर्वेदीय अनुक्रमणिका भी कात्यायन द्वारा विरचित मानी जाती है। शौनक की आर्षानुक्रमणी आदि कुछ अन्य अनुक्रमणियाँ ऋग्वेद से सम्बद्ध हैं। अनुक्रमणी-साहित्य अत्यन्त विशाल है और वेदार्थानुशीलन में सहायक है।
विविèा विèााओं के अनेक ग्रन्थों से समलंकृत 'वैदिक वेदा³ग वा³मय संस्कृत का वह विशाल साहित्य है, जो अपने प्रतिपाध विषय और विशिष्ट भाषा की दृषिट से विश्व में अद्वितीय माना जाता है।