7/1/16

वेद का परिचय एवं महत्त्व -पाठ-3

पाठ-3
वेद के ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद ग्रन्थ
वैदिक संहिताओं के अनन्तर वेद के तीन प्रकार के ग्रन्थ हैं-ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद। इन ग्रन्थों का सीधा सम्बन्ध अपने वेद से होता है, जैसे ऋग्वेद के ब्राह्राण, ऋग्वेद के आरण्यक और ऋग्वेद के उपनिषदों के साथ ऋग्वेद का संहिता ग्रन्थ मिलकर भारतीय परम्परा के अनुसार 'ऋग्वेद कहलाता है। इस अध्याय में ब्राह्राण, आरण्यक और उपनिषद ग्रन्थों के स्वरूप, महत्त्व आदि का परिचय दिया जा रहा है।
(1) ब्राह्राण ग्रन्थ
1. 'ब्राह्राण शब्द का अर्थ
वेद का सर्वमान्य लक्षण है-'मन्त्राब्राह्राणात्मको वेद:'। जैमिनि के अनुसार मन्त्रा भाग के अतिरिक्त शेष वेद-भाग ब्राह्राण हैं-'शेषे ब्राह्राणशब्द:। सायण ने भी यही लक्षण स्वीकार किया है। वेद भाग को बताने वाला 'ब्राह्राण शब्द नपुंसक लि³ में है। ग्रन्थ के अर्थ में 'ब्राह्राण शब्द का प्रयोग सबसे पहले तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। व्युत्पति की दृषिट से यह शब्द 'ब्रह्रान शब्द में 'अण प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है। 'ब्रह्रा शब्द के दो अर्थ हैं-मन्त्रा तथा यज्ञ। इस तरह ब्राह्राण वे ग्रन्थ हैं जिनमें याज्ञिक दृषिट से मन्त्राों की विनियोगपरक व्याख्या की गयी है। संक्षेप में मन्त्राों के व्याख्या ग्रन्थ 'ब्राह्राण हैें।
2.संहिता और ब्राह्राण का भेद
संहिता ग्रंथों और ब्राह्राण ग्रंथों में स्वरूप और विषय का भेद है। स्वरूप की दृषिट से संहिता ग्रन्थ अधिकतर छन्दोब) हैं, जबकि ब्राह्राण ग्रन्थ सर्वथा गधात्मक है। विषय की दृषिट से भी दोनों में अन्तर है। ऋग्वेद में देवस्तुतियों की प्रधानता है, यजुर्वेद में विविध यागों का वर्णन है। अथर्ववेद में रोगनिवारण, शत्राुनाशन आदि विषय हंै। परन्तु ब्राह्राणग्रन्थों का मुख्य विषय है-विधि। यज्ञ कब और कहां किया जाए, यज्ञ के अधिकारी कौन हैं? यज्ञ के आवश्यक साधन और सामग्री क्या हैं? इस प्रकार के यज्ञपरक विवेचन इनमें होते हैं। संहिताग्रन्थ स्तुति-प्रèाान हैंं तो ब्राह्राणग्रन्थ विधिप्रधान। भाव के अतिरिक्त भाषा की दृषिट से भी दोनों में भेद हैं। वेदों की अपेक्षा ब्राह्राणों की भाषा सरल और प्रसादगुण युक्त है। इसमें समास आदि के कम प्रयोग हुए हैं।
संहिता और ब्राह्राण अलग-अलग हैं पर दोनों का अटूट सम्बन्ध है। मन्त्राों का कर्मकाण्ड में विनियोग होता है और ब्राह्राण मन्त्राों के विनियोग की विधि बतलाते हैं। प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्राण ग्रन्थ होते हैं, जो अपनी संहिता के मन्त्राों के यज्ञों में विनियोग आदि पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। इनमें यथास्थान आख्यान आदि देकर शैली को रोचक बनाया गया है। ब्राह्राण ग्रन्थों की वैदिक भाषा पर लौकिक संस्कृत का किंचित प्रभाव दिखार्इ देता है। ब्राह्राण ग्रन्थों के रचयिताओं को आचार्य कहते हैैं। कुछ विशेष आचायो± के नाम हैं-कौषीतकि, भरद्वाज, शांखायन, ऐतरेय, वाष्कल, शाकल, गाग्र्य, शौनक और आश्वलायन।
3. ब्राह्राण ग्रन्थों का विवेच्य विषय
ब्राह्राण ग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञकर्म का विधान है। अगिनहोत्रा से लेकर विधीयमान समस्त यागों का निरूपण ब्राह्राण ग्रन्थों में मिलता है। अगिनहोत्रा, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, सोमयाग इत्यादि यागों के निरूपण के साथ-साथ सत्रा आदि और काम्य यागों का वर्णन भी ब्राह्राण ग्रन्थों में प्राप्त होता है। यज्ञ का विधान कब हो? कैसे हो? किन किन साधनों से हो? इस प्रकार अनेक यज्ञकर्म विषयक प्रश्नों का समाधान इन ग्रन्थों में है। इन विभागों को ही 'विधि कहते हैं। मीमांसादर्शन के भाष्य में शबरस्वामी ने इन्हीं विषयों को कुछ विस्तार से दस भागों में विभाजित किया है-
हेतुर्निर्वचनं निन्दा प्रशंसा संशयो विधि:।
परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारण-कल्पना।।
उपमानं दशैेते तु विधयो ब्राह्राणस्य वै।।
ये दश विषय हैं-
(1) हेतु-यज्ञ में कोर्इ कार्य क्यों किया जाता है उसका कारण बताना।
(2) निर्वचन-शब्दों की निरुकित बताना।
(3) निन्दा-यज्ञ में निषि) कमो± की निन्दा।
(4) प्रशंसा-यज्ञ में विहित कायो± की प्रशंसा करना।
(5) संशय-कियी यज्ञिय कर्म के विषय में कोर्इ सन्देह हो तो उसका निवारण करना।
(6) विधि-यज्ञिय क्रिया कलाप की पूरी विधि का निरूपण करना।
(7) परक्रिया-परार्थ क्रिया या परोपकार अथवा जनहित के कायो± का निर्देश करना।
(8) पुराकल्प-यज्ञ की विभिन्न विधियों के समर्थन में किसी प्राचीन आख्यान या ऐतिहासिक घटना का वर्णन करना।
(9) व्यवधारणकल्पना-परिसिथति के अनुसार कार्य की व्यवस्था करना।
(10) उपमान-कोर्इ उपमा या उदाहरण द्वारा विवेच्य विषय की पुषिट करना।
संक्षेप में यज्ञप्रक्रिया और उससे सम्ब) विषयों का प्रतिपादन ही ब्राह्राणों का विवेच्य विषय है। यज्ञ-मीमांसा के मुख्य दो भेद होते हैं-विधि और अर्थवाद।
वाचस्पति मिश्र ने 'ब्राह्राणग्रन्थों के चार प्रयोजन बताए हैं-
(1) निर्वचन-शब्दों की निरुकित करना।
(2) विनियोग-कौन सा मन्त्रा किस कार्य के लिए है उसका निर्देश करना।
(3) प्रतिष्ठान-यज्ञ में प्रत्येक विधि का महत्त्व, करने के लाभ, न करने की हानियां आदि।
(4) विधि-यज्ञ और उसकी प्रक्रिया का विस्तृत विवरण करना।
यज्ञ-विधान के अतिरिक्त ब्राह्राण ग्रन्थों में आध्यातिमक और दार्शनिक मीमांसाएं भी मिलती हैं। यहां यज्ञ केवल कर्मकाण्ड ही नहीं सृषिट-विधा का भी प्रतीक है। यज्ञ को ब्रह्राप्रापित का साधन माना गया है।
4. ब्राह्राण ग्रन्थों का महत्त्व
ब्राह्राणग्रन्थों को वैदिक वा³मय का विशाल ज्ञान कोश माना जाता है। समग्र मूल्यांकन करने पर इनमें इतिहास, धर्म, संस्कृति, प्राचीन विज्ञान, सृषिट-प्रक्रिया, आचारदर्शन, भाषाशास्त्रा आदि के महत्त्वपूर्ण तत्त्व प्राप्त होते हैं। शबरस्वामी, मेधातिथि, वाचस्पति मिश्र, उवट, सायण आदि प्राचीन आचायो± ने मन्त्रा-संहिताओं के साथ ब्राह्राणग्रन्थों को भी वेदरूप स्वीकार किया है। आधुनिक युग में स्वामी दयानन्द सरस्वती और कुछ दूसरे वैदिक विद्वानों ने ब्राह्राण को 'वेद व्याख्यान ग्रन्थ माना है। ब्राह्राणों के व्यापक प्रतिपाध को ध्यान में रखकर इनके महत्त्व को निम्नलिखित आधारों पर स्वीकार किया जाता है-      
(1) विविध यज्ञों के विधिविधानों का विस्तृत विवरण इनमें हुआ है।
(2) इनमें अनेक निर्वचन प्राप्त होते हैं जो निरुक्तशास्त्रा का आधार हैं।
(3) ब्राह्राण ग्रन्थों में आख्यान मिलते हैं जिनका विस्तार परवर्ती साहित्य में हुआ है।
(4) ब्राह्राणों में अध्यात्म की प्रतिष्ठा है। इससे ही बाद में उपनिषदों का विकास हुआ है।
(5) सामवेद के ब्राह्राणग्रन्थों में संगीतशास्त्रा के सूत्रा मिलते हैं।
(6) ब्राह्राणग्रन्थों में वैज्ञानिक तथ्यों की बीज रूप में प्रापित होती है।
(7) कृषि, वाणिज्य, रेखागणित, नीतिशास्त्रा, आचारशास्त्रा, मनोविज्ञान आदि अनेक शास्त्राों का पूर्वरूप इनमें मिलता है।
(8) ब्राह्राणों में भारत के प्राचीन शहरों, नदियों आदि के नाम मिलते हैं जिससे इनका भौगोलिक महत्त्व स्थापित होता है।
5.ब्राह्राण ग्रन्थों का विभाजन
आज अनेक ब्राह्राणग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनको वेदानुसार इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-
(अ) ऋग्वेदीय ब्राह्राण - 1. ऐतरेय ब्राह्राण, 2. कौषीतकि ब्राह्राण (या शांखायन ब्राह्राण)
(आ) शुक्लयजुर्वेदीय ब्राह्राण - 3. शतपथ ब्राह्राण
(इ) कृष्णयजुर्वेदीय ब्राह्राण - 4. तैत्तिरीय ब्राह्राण
(र्इ) सामवेदीय ब्राह्राण - 5. पंचविंश ब्राह्राण, 6. षडविंश ब्राह्राण, 7. सामविधान ब्राह्राण, 8. आर्षेय ब्राह्राण, 9. दैवत ब्राह्राण, 10. छान्दोग्य ब्राह्राण,
11. संहितोपनिषद ब्राह्राण, 12. वंश ब्राह्राण, 13. जैमिनीय ब्राह्राण
(उ) अथर्ववेदीय ब्राह्राण - 14. गोपथ ब्राह्राण।
6. प्रमुख ब्राह्राण ग्रन्थों का परिचय
(क) ऐतरेय ब्राह्राण - ऋग्वेद का प्रधान ब्राह्राण 'ऐतरेय है। ऋग्वेद के गुá तत्त्वों का विवेचन इस ब्राह्राण ग्रन्थ में प्राप्त किया जा सकता है। इस ब्राह्राणग्रन्थ का प्रणेता ऋषि ऐतरेय महीदास को माना जाता है। सायण आचार्य द्वारा दी गर्इ आख्यायिका के अनुसार महिदास की माता का नाम 'इतरा था इसलिए इनको 'ऐतरेय नाम की प्रसि)ि मिली। सम्पूर्ण ऐतरेय ब्राह्राण में चालीस अध्याय हैं। प्रत्येक पांच अध्यायों को मिलाकर एक 'पंचिका निष्पन्न होती है, जिनकी कुल संख्या इस ग्रन्थ में आठ हैं। अध्याय का अवान्तर विभाजन खण्डों में है। इस ब्राह्राण ग्रन्थ में कुल 285 खण्ड हैं।
ऋग्वेद होता नामक ऋतिवज के कार्य-कलापों का वर्णन करता है। अत: इस ब्राह्राण में सोमयागों के होता-विषयक पक्ष की विशेष मीमांसा की गयी है। होता-मण्डल में सात ऋतिवज होते हैं-होता, मैत्राावरुण, ब्राह्राणच्छंसी, नेष्टा, पोता, अच्छावाक और आग्नीध्र। ये सभी सोमयागों के तीनों सवनों में ऋग्वेद के मन्त्राों का पाठ करते हैं।
ऐतरेय ब्राह्राण में अगिनष्टोम याग, गवामयन याग, सोमयाग, अगिनहोत्रा, राजसूय यज्ञ आदि का विशेष वर्णन प्राप्त होता है। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृषिट से भी इस ग्रन्थ का महत्त्व है क्योंकि इसमें 'ऐन्द्र महाभिषेक और चक्रवर्ती नरेशों के महाभिषेक का वर्णन है। प्राचीन शासन-प्रणालियों की जानकारी भी यत्रा तत्रा मिलती है। कुछ शासनों के नाम भी दिये गये हैं-साम्राज्य, भौज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, राज्य आदि। राजा के कर्तव्य, अतिथि-सत्कार का महत्त्व और यज्ञ की महिमा ऐतरेय ब्राह्राण से प्रतिपादित होती है। इस ब्राह्राणग्रन्थ में शुन: शेप उपाख्यान प्राप्त होता है जो 'चरैवेति चरैवेति की शिक्षा के लिए अति प्रसि) है।     
(ख) शतपथ ब्राह्राण-शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्राणग्रन्थ 'शतपथ सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण है। इसमें 100 अध्याय होने से इसका यह नाम पड़ा है। जिनमें  दर्शपौर्णमास, अगिनहोत्रा, चातुर्मास्य, वाजपेय, राजसूय, अगिनरहस्य, अश्वमेध, पुरुषमेध आदि यागों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। इसके रचयिता वाजसनि के पुत्रा याज्ञवल्क्य माने जाते हैं। वाजसनि के पुत्रा होने से इन्हें 'वाजसनेय कहा जाता है।
महाभारत के शानितपर्व के अनुसार सूर्य से वरदान प्राप्त करके याज्ञवल्क्य ने परिशिष्ट सहित शतपथ ब्राह्राण की रचना की और उसे अपने 100 शिष्यों को पढ़ाया।
शतपथ ब्राह्राण माध्यनिदन और काण्व दोनों शाखाओं में उपलब्ध होता है। माध्यनिदन में 100 अध्याय हैं और काण्व में 104 अध्याय। माध्यनिदन शतपथ ब्राह्राण में 14 काण्ड, 100 अध्याय, 438 ब्राह्राण और 7624 कणिडकाएं हैं। इसके 14 काण्डों में क्रमश: प्रतिपादित मुख्य विषयों को इस प्रकार देखा जा सकता है-
काण्ड 1 - दर्श और पूर्णमास याग
काण्ड 2 - अगिनहोत्रा, पिण्डपितृयज्ञ, चातुर्मास्य आदि।
काण्ड 3 और 4 - सोमयाग।
काण्ड 5 - वाजपेय और राजसूय यज्ञ।
काण्ड 6 - सृषिट-उत्पत्ति, चयन-निरूपण।
काण्ड 7 और 8 - चयन-निरूपण और वेदिनिर्माण।
काण्ड 9 - चयननिरूपण, शतरुæयि होम आदि।
काण्ड 10 - चयननिरूपण, वेदियों का निर्माण।
काण्ड 11 - दर्शपूर्णमास, दाक्षायण यज्ञ, उपनयन, पंच महायज्ञ, स्वाध्याय-विवेचन आदि।
काण्ड 12 - द्वादशाह, संवत्सर सत्रा, ज्योतिष्टोम, सौत्राामणि, प्रायशिचत्त।
काण्ड 13 - अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध, दशरात्रा, पितृमेध।
काण्ड 14 - प्रवग्र्ययाग, ब्रह्राविधा, बृहदारण्यक उपनिषद।
काण्व शतपथ ब्राह्राण में माध्यनिदन शतपथ ब्राह्राण से कुछ क्रम-विन्यास में अन्तर दिखायी देता है। यधपि विषय विवेचन लगभग समान है। इसमें 17 काण्ड, 104 अध्याय, 435 ब्राह्राण और 6806 कणिडकाएं हैं।
शतपथ ब्राह्राण का महत्त्व कर्इ दृषिटयों से आंका जाता है। इसमें यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म घोषित किया गया है। यज्ञ की आध्यातिमक और प्रतीकात्मक व्याख्याएं भी यहां की गयी हैं। प्राचीन भारत के भूगोल, इतिहास, शासन-प्रणाली आदि की भरपूर जानकारी इन ग्रन्थों में उपलब्ध है। अनेक पौराणिक राजाओं और वंशों के नाम यहां मिलते हैं-यथा-जनमेजय, भीमसेन, उग्रसेन, भरत, शकुन्तला, शतानीक, धृतराष्ट्र आदि। इस ब्राह्राण्रगन्थ में ऐसे अनेक आख्यान मिलते हैं जिनका बाद में विस्तार हुआ है जैसे-मनु और श्र)ा का आख्यान, जलप्लावन और मत्स्य की कथा, इन्द्र-वृत्रा-यु), नमुचि और वृत्रा की कथा, पुरूरवा और उर्वशी का आख्यान।
सृषिट-उत्पत्ति का विस्तृत विवरण भी शतपथ ब्राह्राण का एक महत्त्वपूर्ण विषय है।
(ग) तैत्तिरीय ब्राह्राण - कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्राण तैत्तिरीय ब्राह्राण के नाम से प्रसि) है। इसके रचयिता वैशम्पायन के शिष्य आचार्य तित्तिरि है। तित्तिरि ही तैत्तिरीय संहिता के भी प्रणेता ऋषि है। यह ब्राह्राण सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध होता है। शतपथ ब्राह्राण की तरह इसका पाठ भी सस्वर है। यह इसकी प्राचीनता का धोतक है। सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन काण्डों में विभाजित हैं। प्रथम दो काण्डों में आठ-आठ अध्याय अथवा प्रपाठक हैं, जबकि तृतीय काण्ड में 12 अध्याय या प्रपाठक हैं।
इस ब्राह्राणग्रन्थ का विषय अत्यन्त व्यापक है। इसमें अन्याधान, गवामयन, वाजपेय, नक्षत्रोषिट, राजसूय, अगिनहोत्रा, उपहोम, सौत्राामणी, पुरुषमेध आदि का विस्तृत विवेचन है। सोमयागों के अतिरिक्त इसमें इषिटयों और पशुयागों की भी विशद विवेचना मिलती है।
तैत्तिरीय ब्राह्राण के प्रसि) आख्यानों में 'इन्द्र-भरद्वाज-संवाद, मनु और इडा की कथा, नचिकेता का उपाख्यान उल्लेखनीय हैं। सृषिट, यज्ञ और नक्षत्रा विषयक आख्यान भी पर्याप्त संख्या में यहां प्राप्त होते हैं।
(घ) सामवेदीय ब्राह्राण - अन्य वेदों के ब्राह्राणों की तुलना में सामवेद के ब्राह्राणों की संख्या अधिक हैं। सामवेद के आठ ब्राह्राण आज उपलब्ध होते हैं जिनका सायण ने भी उल्लेख किया है-
1. ताण्डय ब्राह्राण (पंचविंश)
2. षडविंश
3. सामविधान
4. आर्षेय
5. देवताध्याय
6. उपनिषद (मन्त्रा ब्राह्राण और छान्दोग्य उपनिषद)
7. संहितोपनिषद
8. वंश ब्राह्राण
ये कौथुम और राणायनीय शाखाओं से सम्ब) हैं। जैमिनीय शाखा से सम्ब) तीन ब्राह्राण हैं-
1. जैमिनीय ब्राह्राण
2. जैमिनीय आर्षेय ब्राह्राण
3. जैमिनीय उपनिषद ब्राह्राण
उपयर्ुक्त 8 ब्राह्राणों में से प्रथम और द्वितीय अर्थात ताण्डय और षडविंश को ही पूर्ण ब्राह्राण का स्थान प्राप्त है। शेष सामविधान आदि को 'अनुब्राह्राण कहा जाता है।
(³) गोपथ ब्राह्राण - अथर्ववेद का एकमात्रा ब्राह्राण गोपथ ब्राह्राण है। इसके रचयिता गोपथ ऋषि माने जाते हैं। इसके दो भाग हैं-पूर्व गोपथ और उत्तर गोपथ। दोनों भागों में 11 प्रपाठक हैं। प्रत्येक प्रपाठक कणिडकाओं में विभक्त है। पूर्वगोपथ में 135 और उत्तर गोपथ में 123 कणिडकाएं हैं। गोपथ ब्राह्राण का विवेच्य विषय भी अन्य ब्राह्राणों की तरह याज्ञिक प्रक्रियाओं को स्पष्ट करना है। ग्रन्थ के पूर्वभाग में ओम की महिमा का विस्तृत विवरण है। गायत्राी मन्त्रा के विषय में मौदगल्य और मैत्रोय के संवाद महत्त्वपूर्ण हैंं। ब्रह्राचर्य का महत्त्व, ऋतिवजों की दीक्षा का विवेचन, यज्ञ-प्रक्रिया के वैज्ञानिक रहस्य, यज्ञ के देवता और उनके फलों का विवचेन तथा अश्वमेघ, पुरुषमेघ, अगिनष्टोम आदि प्रसि) यज्ञों का वर्णन इस ब्राह्राण ग्रन्थ में विशेष रूप से प्राप्त होता है। गोपथ ब्राह्राण के आख्यान भी ऐतिहासिक दृषिट से महत्त्वपूर्ण हैं। 'ब्राह्राण साहित्य अत्यन्त विशाल है। वैदिक यागानुष्ठानों के सूक्ष्म विवरण को प्रस्तुत करने के अतिरिक्त तत्युगीन धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक औरसांस्कृतिक मान्यताओं को प्रकाशित करने के कारण यह साहित्य वैदिक वा³मय में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
(2) आरण्यक ग्रन्थ
1. 'आरण्यक शब्द का अर्थ
आरण्यक ग्रन्थों का आध्यातिमक महत्त्व ब्राह्राण ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक है। ये अपने नाम के अनुसार ही अरण्य या वन से सम्ब) हैं। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे 'आरण्यक कहते हैं-अरण्ये भवम आरण्यकम। आरण्यक ग्रन्थों का प्रणयन प्राय: ब्राह्राणों के पश्चात हुआ है क्योंकि इसमें दुर्बोध यज्ञ-प्रक्रियाओं को सूक्ष्म अध्यात्म से जोड़ा गया है। वानप्रसिथयों और संन्यासियों के लिए आत्मतत्त्व और ब्रह्राविधा के ज्ञान के लिए मुख्य रूप से इन ग्रन्थों की रचना हुर्इ है-ऐसा माना जाता है।      
2. आरण्यक ग्रन्थों का विवेच्य विषय
आरण्यक ग्रन्थ वस्तुत: ब्राह्राणों के परिशिष्ट भाग हैं और उपनिषदों के पूर्वरूप। उपनिषदों में जिन आत्मविधा, सृषिट और तत्त्वज्ञान विषयक गम्भीर दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन है, उसका प्रारम्भ आरण्यकों में ही दिखलायी देती है।
आरण्यकों में वैदिक यागों के आध्यातिमक और दार्शनिक पक्षों का विवेचन है। इनमें प्राणविधा का विशेष वर्णन हुआ है। कालचक्र का विशद वर्णन तैत्तिरीय आरण्यक में प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत का वर्णन भी इस आरण्यक में सर्वप्रथम मिलता है।
3. आरण्यक ग्रन्थों का महत्त्व
वैदिक तत्त्वमीमांसा के इतिहास में आरण्यकों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। इनमें यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का उदघाटन किया गया है। इनमें मुख्य रूप से आत्मविधा और रहस्यात्मक विषयों के विवरण हैं। वन में रहकर स्वाध्याय और धार्मिक कायो± में लगे रहने वाले वानप्रस्थ-आश्रमवासियों के लिए इन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविधा की महिमा का विशेष प्रतिपादन किया गया है।
प्राणविधा के अतिरिक्त प्रतीकोपासना, ब्रह्राविधा, आध्यातिमकता का वर्णन करने से आरण्यकों की विशेष महत्ता है। अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों की प्रस्तुति के कारण भी आरण्यक ग्रन्थ उपोदय हंै। वस्तुत: ये ग्रन्थ ब्राह्राण ग्रन्थों और उपनिषदों को जोड़ने वाली कड़ी जैसे हैं, क्योंकि इनसे उपनिषदों के प्रतिपाध विषय और भाषा शैली के विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है।
4. आरण्यकग्रन्थों का विभाजन
आरण्यकों का वेदानुसार परिचय इस प्रकार है-
(अ) ऋग्वेदीय आरण्यक - 1ण् ऐतरेय आरण्यक, 2ण् कौषीतकि आरण्यक (या शांखायन आरण्यक)
(आ) शुक्लयजुर्वेदीय आरण्यक - 3ण् बृहदारण्यक
(इ) कृष्णयजुर्वेदीय आरण्यक - 4ण् तैत्तिरीय आरण्यक, 5ण् मैत्राायणीय आरण्यक
(र्इ) सामवेदीय आरण्यक - 6ण् तलवकार आरण्यक, 7ण् छान्दोग्य आरण्यक।
यधपि अथर्ववेद का पृथक से कोर्इ आरण्यक प्राप्त नहीं होता है, तथापि उसके गोपथ ब्राह्राण में आरण्यकों के अनुरूप बहुत सी सामग्री मिलती है।
5. प्रमुख आरण्यक ग्रन्थों का परिचय
(क) ऐतरेय आरण्यक - यह ऐतरेय ब्राह्राण का परिशिष्ट भाग है। इसमें पांच भाग हैं। इन भागों को आरण्यक या प्रपाठक कहते हैं। ये पुन: अध्यायों में विभक्त हैं।
इसके आरण्यकों का वण्र्य विषय इस प्रकार है-
आरण्यक 1 - महाव्रत वर्णन
आरण्यक 2 - निष्केवल्य, प्राणविधा और पुरुष का वर्णन, ऐतरेय उपनिषद
आरण्यक 3 - संहितोपनिषद
आरण्यक 4 - महानाम्नी ऋचाएं
आरण्यक 5 - निष्केवल्य शस्त्रा का वर्णन।
प्राणविधा, आत्मा, आचारसंहिता आदि सामान्य रूप से इस आरण्यक के विषय कहे जा सकते हैं।    
(ख) बृहदारण्यक - यह शुक्ल यजुर्वेदीय आरण्यक है। इसको आरण्यक से अधिक उपनिषद के रूप में मान्यता प्राप्त है। अत: इसका विवरण उपनिषदों में दिया गया है।
(ग) तैत्तिरीय आरण्यक - यह कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का आरण्यक है। इसमें 10 प्रपाठक हैं। प्रपाठकों के उपविभाग अनुवाक हैं। प्रपाठकों का नाम उनके पहले पद के आधार पर रखा गया है। 10 प्रपाठक है-भद्र, सह वै, चिति, यु×जते, देव वै, परे, शिक्षा, ब्रह्राविधा, भृगु और नारायणीय।
तैत्तिरीय आरण्यक में पंच महायज्ञ, स्वाध्याय, अभिचार-प्रयोग, शब्दों के निर्वचन आदि विशेष रूप से प्रतिपादित हैं। कुरुक्षेत्रा, खाण्डववन आदि भौगोलिक वर्णन भी इसमें मिलते हैं। तैत्तिरीय और महानारायणीय नामक दो उपनिषदों का अन्तर्भाव इस आरण्यक में है।
(घ) तलवकार आरण्यक - यह सामवेद की जैमिनिशाखा का आरण्यक है - इसको जैमिनीय उपनिषद ब्राह्राण भी कहते हैं। इसमें चार अध्याय हैं। अध्यायों के अन्तर्गत अनुवाक और खण्ड हैं। तलवकार आरण्यक के मुख्य प्रतिपाध विषय हैं - सृषिट-प्रक्रिया, सामगान, गायत्राी और ओम की महिमा। कतिपय भाषाशास्त्राीय एवं देवशास्त्राीय तथ्यों का उल्लेख भी इसमें मिलता है।
(3) उपनिषद ग्रन्थ
1. 'उपनिषद शब्द का अर्थ
वैदिक वा³मय का अनितम भाग होने से उपनिषदों को 'वेदान्त भी कहते हैं। या फिर सम्पूर्ण वेदों का सार होने से ही ये 'वेदान्त हैं। 'उपनिषद शब्द की निष्पत्ति 'उप और 'नि उपसर्ग के साथ सद धातु से हुर्इ है, इसलिए इसका शाबिदक अर्थ है-तत्त्वज्ञान के लिए गुरु के समीप सविनय बैठना। सद धातु के अन्य तीन अर्थ हैं-विशरण (विनाश), गति (प्राप्त करना) और अवसादन (शिथिल होना)। अत: 'उपनिषद उस विधा का नाम है, जिसके अनुशीलन से मुमुक्षुओं की अविधा का विनाश होता है, ब्रह्रा की उपलबिध होती है और दु:ख शिथिल हो जाते हैं। गौण अर्थ में यह शब्द पूर्वोक्त ब्रह्राविधा के प्रतिपादक ग्रन्थविश्ेाष का भी बोधक है और यहां इसी अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है।
2. उपनिषद ग्रन्थों का विवेच्य विषय
वैदिक ग्रन्थों में जो दार्शनिक और आध्यातिमक चिन्तन यत्रा-तत्रा दिखार्इ देता है, वही परिपक्व रूप में उपनिषदों में निब) हुआ है। उपनिषदों में मुख्य रूप से 'आत्मविधा का प्रतिपादन है, जिसके अन्तर्गत ब्रह्रा और आत्मा के स्वरूप, उसकी प्रापित के साधन और आवश्यकता की समीक्षा की गयी है। आत्मज्ञानी के स्वरूप, मोक्ष के स्वरूप आदि अवान्तर विषयों के साथ ही विधा, अविधा, श्रेयस, प्रेयस, आचार्य आदि तत्सम्ब) विषयों पर भी भरपूर चिन्तन उपनिषदों में उपलब्ध होता है।
उपनिषदों में सर्वत्रा समन्वय की भावना है। दोनों पक्षों में जो ग्राá है उसे ले लेना चाहिए। इसी दृषिट से ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग, विधा और अविधा, संभूति और असंभूति के समन्वय का उपदेश है। उपनिषदों में कभी-कभी ब्रह्राविधा की तुलना में कर्मकाण्ड को बहुत हीन बताया गया है। र्इश आदि कर्इ उपनिषदें एकात्मवाद का प्रबल समर्थन करती हैं-जो सब प्राणियों में एकत्व की अनुभूति करता है, वह शोक और मोह से परे हो जाता है।
3.उपनिषद-ग्रन्थों का महत्त्व
वैदिक धर्म के मूल तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाली 'प्रस्थानत्रायी में ब्रह्रासूत्रा और गीता के साथ उपनिषदों को भी गिना जाता है। कुछ सीमा तक ब्रह्रासूत्रा और गीता उपनिषदों पर आधारित हैं। भारत की समग्र दार्शनिक चिन्तनधारा का मूल स्रोत उपनिषद-साहित्य ही है। इनसे दर्शन की जो विभिन्न धाराएं निकली हैं, उनमें 'वेदान्त दर्शन का अद्वैत सम्प्रदाय प्रमुख है। 'र्इशावास्योपनिषद को सम्पूर्ण गीता का मूल माना जा सकता है। मुण्डक उपनिषद, केन उपनिषद, कठ उपनिषद, माण्डूक्य उपनिषद आदि कुछ दूसरे महत्त्वूपर्ण उपनिषद कर्इ परवर्ती दार्शनिक सि)ान्तों के स्रोत हैं। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान और कर्तव्यशास्त्रा का प्रभाव भारतीय दर्शन के अतिरिक्त धर्म और संस्कृति पर भी परिलक्षित होता है।
उपनिषदों का महत्त्व उनकी रोचक प्रतिपादन शैली के कारण भी है। कर्इ सुन्दर आख्यान और रूपक उपनिषदों में मिलते हैं।
4. उपनिषद-ग्रन्थों की संख्या
उपनिषदों की संख्या के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद हैं। इनकी संख्या 10 से लेकर 200 तक बतार्इ जाती है। मुकितकोपनिषद में उपनिषदों की संख्या 108 बतार्इ गर्इ है, जिनमें 10 उपनिषद ऋग्वेद से सम्ब) हैं, 19 शुक्लयजुर्वेद से सम्ब) हैं, 32 कृष्णयजुर्वेद से सम्ब) हैं, 16 सामवेद से सम्ब) हैं, और 31 अथर्ववेद से सम्ब) हैं। परन्तु आठवीं शताब्दी र्इ0 में आदि श³कराचार्य ने जिन उपनिषदों पर भाष्य लिखा है, उनको ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक माना जाता है। मुकितकोपनिषद में दस मुख्य उपनिषदों को गिनाया गया है-1ण् र्इश, 2ण् केन, 3ण् कठ, 4ण् प्रश्न, 5ण् मुण्डक, 6ण् माण्डूक्य, 7ण् तैत्तिरीय, 8ण् ऐतरेय, 9ण् छान्दोग्य, और 10ण् बृहदारण्यक।
र्इश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य -तित्तिरि:।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं च दश।।
आचार्य शंकर ने इन दस उपनिषदों पर भाष्य लिखा है और तीन कौषीतकि, श्वेताश्वतर और मैत्राायणीय उपनिषदों का भी अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है। अत: प्राचीन उपनिषदों के रूप में इन तेरह उपनिषदों को ही प्रामाणिक बताया जाता है। उपनिषद-विद्वान हयूम ने इन तेरह उपनिषदों का ही अंग्रेजी में अनुवाद किया है।
5. उपनिषद-ग्रन्थों का वर्गीकरण
उपनिषदों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जाता है जिनमें निम्नलिखित दो दृषिटकोण अधिक प्रचलित हैं-
(अ) वेदानुसार वर्गीकरण
प्रत्येक उपनिषद का किसी न किसी वेद से सम्बन्ध है। अत: 108 उपनिषदों को इस प्रकार बांटा जा सकता है-
1. ऋग्वेदीय उपनिषद - ऐतरेय, कौषीतकि आदि 10 उपनिषद।
2. शुक्लयजुर्वेदीय उपनिषद - र्इश, बृहदारण्यक आदि 19 उपनिषद।
3. कृष्णयजुर्वेदीय उपनिषद - कठ, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर आदि 32 उपनिषद।
4. सामवेदीय उपनिषद - केन, छान्दोग्य आदि 16 उपनिषद।
5. अथर्ववेदीय उपनिषद - प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य आदि 31 उपनिषद।
(आ) विषयानुसार वर्गीकरण
108 उपनिषदों को विषयानुसार छह भागों में बांटा जा सकता है-
1. वेदान्त के सि)ान्तों पर निर्भर 24 उपनिषद
2. योग के सि)ान्तों पर निर्भर 20 उपनिषद
3. सांख्य के सि)ान्तों पर निर्भर 17 उपनिषद     
4. वैष्णव सि)ान्तों पर निर्भर 14 उपनिषद
5.शैव सि)ान्तों पर निर्भर 15 उपनिषद
6. शाक्त और अन्य सि)ान्तों पर निर्भर 18 उपनिषद।
विभिन्न विषयों पर इतनी बड़ी संख्या में उपनिषदों के होने का प्रधान कारण यही रहा है कि सभी दर्शनों और मतों के अनुयायियों ने अपने-अपने सि)ान्तों के प्रवर्तन के लिए उपनिषदों की सत्ता को महत्त्वपूर्ण माना है।
6. प्रमुख उपनिषद ग्रन्थों का परिचय
1. ऐतरेय उपनिषद - ऐतरेय आरण्यक के द्वितीय आरण्यक के चतुर्थ अध्याय से षष्ठ अध्याय तक ऐतरेय उपनिषद कहलाता है। इसमें सृषिट-तत्त्व, पुनर्जन्म और प्रज्ञा रूपी मुख्य तत्त्वों का विवेचन किया गया है। यहां मुख्यत: चैतन्य के रूप को प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि समस्त चेतन और अचेतन वस्तुओं में एक ही चैतन्य विधमान है। इस प्रकार यह उपनिषद आदर्शवाद या चिदवाद का प्रतिपादक सि) होता है।
2. कौषीतकि उपनिषद - ऋग्वेद के कौषीतकि आरण्यक के तृतीय एवं षष्ठ अध्याय को कौषीतकि उपनिषद कहते हैं। इसमें चार अध्यायों में देवयान और पितृयान का विस्तृत वर्णन है। प्राणतत्त्व पर सूक्ष्म विचार किया गया है तथा दार्शनिक सिद्वांतों का उल्लेख मिलता है। समस्त संसार को अर्थात सदसत कार्यो± को आत्मा का निमित्तमात्रा बताया गया है।
3. र्इशावास्योपनिषद - 'र्इशा वास्यमिदं सर्वम के आधार पर ही इस उपनिषद का नाम पड़ा है। र्इशावास्योपनिषद माध्यनिदनशाखीय यजुर्वेदसंहिता का चालीसवां अध्याय है। यह उपनिषद ज्ञान-दृषिट से कर्म की उपासना का रहस्य बताता है। यह उपनिषद 18 पधों में निष्काम भाव से कर्म-सम्पादन का भी उपदेश देता है। यह उपनिषद स्पष्ट रूप से अद्वैत भावना का प्रतिपादन करता है। इस उपनिषद में अद्वैत भावना, ब्रह्रा स्वरूप, विधा-अविधा, संभूति-असंभूति, सिथतप्रज्ञ आदि का विवेचन है। उपनिषद के द्वितीय मन्त्रा में प्रतिपादित कर्मयोग का सि)ांत ही गीता का मुख्य अंश बना है। यहां आत्महत्या की भी घोर निन्दा है। ज्ञान की प्रशंसा करते हुए ज्ञान के द्वारा अमृततत्त्व की प्रापित का उल्लेख है-विधया•मृतमश्नुते।
4. बृहदारण्यकोपनिषद - यह विपुलकाय एवं प्राचीतनम उपनिषद है। शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्राण के अनितम छ: अध्याय ही बृहदारण्यकोपनिषद नाम से प्रसि) है। नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें आरण्यक एवं उपनिषद दोनों ही भाग मिले हैं। यह उपनिषद याज्ञवल्क्य के उदात्त अध्यात्मज्ञान को प्रतिपादित करते हुए दार्शनिक विषयों को प्रस्तुत करता है। इसमें मृत्यु, प्राण एवं सृषिट संबंधी सि)ांत हैं तथा नीतिपरक, सृषिटविषयक एवं परलोक-संबंधी तथ्यों का विवेचन भी प्राप्त होता है। आत्मतत्त्व के निरूपण में याज्ञवल्क्य और मैत्रायी का संवाद विशेष महत्त्व रखता है। यहां 'द अक्षर की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए प्रजापति ने देवों, मानवों और दानवों को क्रमश: इनिद्रयों के दमन, दान और दया का उपदेश दिया है।
5. कठोपनिषद - कठोपनिषद कृष्णयजुर्वेद की कठ शाखा से संबंध है। इसमें यमराज नचिकेता के विशेष आग्रह पर अद्वैत तत्त्व का मार्मिक उपदेश देते हैं। इसमें दो अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वलिलयां हैं। यहां ब्रह्रा के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि अनित्यों में नित्य, अचेतनों में चेतन वह एक ब्रह्रा सब प्राणियों की आत्मा में निवास करता है। यह उपनिषद काव्यात्मक शैली में उच्चतम दार्शनिक तथ्यों को प्रतिपादित करने के कारण अत्यन्त प्रसि) है।
6. तैत्तिरीयोपनिषद - तैत्तिरीय आरण्यक के सप्तम से नवम पर्यन्त प्रपाठक तैत्तिरीय उपनिषद के रूप में जाने जाते हैं। इस उपनिषद के सप्तम प्रपाठक को शिक्षावल्ली, अष्टम प्रपाठक को ब्रह्राानन्दवल्ली और नवम प्रपाठक को भृगुवल्ली कहते हैं। इसमें उपासना, शिष्य और गुरु संबंधी शिष्टाचार, ब्रह्रा-विधा, ब्रह्रा-प्रापित के मुख्य साधन आदि का प्रतिपादन है।  
7. श्वेताश्वतरोपनिषद - श्वेताश्वतरोपनिषद शैव धर्म के गौरव को प्रतिपादित करता है। इसमें योग और सांख्य दर्शनों के सि)ांतों का विशद विवेचन है। गीता में क्षर, अक्षर, प्रधान आदि तत्त्वों का समावेश इसी उपनिषद से किया गया है। इसमें र्इश्वर और गुरु-भकित का आदेश दिया गया है।
8. केनोपनिषद - 'केनेषितं पतति के आधार पर ही केनोपनिषद नाम पड़ा है। इसे तलवकार उपनिषद के नाम से भी जाना जाता है। यह उपनिषद लघुकाय है। इसके केवल चार खण्ड हैं-दो पध में और दो गध में। इसमें सगुण-निर्गुण ब्रह्रा का भेद, ब्रह्रा के रहस्यमय रूप तथा ब्रह्रा की सर्वशकितमता एवं देवताओं की अल्पशकितमत्ता का विवेचन है।
9. छान्दोग्योपनिषद - यह उपनिषद सामवेद की कौथुम शाखा से सम्ब) है। छान्दोग्योपनिषद अध्यात्म ज्ञान, अनेक विधाओं, ओंकार, गायत्राी-वर्णन और सृषिट विषयक तथ्यों के विशद वर्णन के कारण प्रौढ़ और प्रामाणिक है। इस उपनिषद में नाना प्रकार की उपासनाओं का उल्लेख मिलता है-गायत्राी उपासना, प्राणोपासना इत्यादि। यहां विधा, श्र)ा और योग की आवश्यकता प्रधानतया प्रतिपादित की गर्इ है।
10. प्रश्नोपनिषद - प्रश्न एवं उत्तर रूप से निब) होने के कारण इसे प्रश्नोपनिषद कहते हैं। इसमें अक्षर ब्रह्रा को ही जगत की प्रतिष्ठा बताया गया है। इसमें प्रजा की उत्पत्ति, प्राणों की उत्पत्ति, स्वप्न, जागरण, षोडश कला-सम्पन्न पुरुष आदि की विवेचना है।
11. मुण्डकोपनिषद - यह उपनिषद अथर्ववेद की शौनक शाखा से सम्ब) है। सृषिट की उत्पत्ति तथा ब्रह्रा तत्त्व का चिन्तन ही इसका वण्र्य विषय है। यहां कर्मकाण्ड की हीनता को प्रतिपादित करने के पश्चात ब्रहज्ञान की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया गया है। द्वैतवाद का प्रधान स्तम्भ रूप मन्त्रा इस उपनिषद में आता है-'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षम। 'वेदान्त शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग यहीं हुआ है। सांख्य और वेदान्त के तथ्यों का प्रभाव भी इसमें दृषिटगोचर होता है।
12. माण्डूक्योपनिषद - यह अत्यन्त लघुकाय उपनिषद है, परन्तु इसमें अत्यन्त विशाल सि)ान्त को प्रतिपादित किया गया है। इसमें ओंकार और आत्मा का मार्मिक एवं रहस्यमय विवेचन है। इसमें चार मानसिक अवस्थाओं की कल्पना की गर्इ है-जागृति, स्वप्न, सुषुपित तथा तुरीय और इनके अनुरूप ही परमात्मा के चार पक्ष भी बताये गए हैं-वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ तथा प्रप×चोपशम रूपी शिव। इनमे ंसे अनितम ही चैतन्य आत्मा का विशु) रूप है।
13. मैत्राायणी उपनिषद - मैत्राायणी उपनिषद कृष्णयजुर्वेद से सम्ब) है। इसमें सांख्य दर्शन के तत्त्व तथा योग के षड³ग का वर्णन है। यह उपनिषद मुख्यत: गधात्मक है, कहीं-कहीं पध भी मिलते हैं। इस उपनिषद के सप्तम प्रपाठक में र्इश और कठ से दो-दो उदधरण मिलते हैं, जिसके कारण मैत्राायणी उपनिषद त्रायोदश उपनिषदों में अर्वाचीन प्रतीत होता है।